Thursday, May 9, 2019

कांग्रेस का तुरूप का इक्का भी बेकार निकला

दरकती विरासत को बचाने की आखिरी कोशिश भी नाकाम!

आनन-फानन की राजनीति, तुक्के की राजनीति, करिश्मे की राजनीति, ग्लैमर की राजनीति, चमक-दमक की राजनीति, विरासत में कलई लगाने की राजनीति, वंशवाद के महिमामंडन की राजनीति  ये वो तमाम कारण है जिसको ध्यान में रखकर कांग्रेस ने 2019 के चुनाव में प्रियंका गांधी का सहारा लिया । प्रियंका को सियासत में उतार कर कांग्रेस ने ये भी  साबित कर दिया की मोदी से जीतना राहुल के अकेले के बस की बात नहीं है। प्रियंका को कांग्रेस ने हमेशा तुरूप के इक्के की तरह अपने भविष्य के सियासत के लिए बचा कर रखा था लेकिन खेल हो या राजनीति टाइमिंग का बड़ा महत्व होता है । मीडिया में प्रियंका गांधी की एंट्री की झांकी सजने ही वाली थी कि पाकिस्तान पर भारतीय सेना ने एयरस्ट्राइक कर दिया और राजनीति में प्रियंका के शुरूआती दस दिन में जो अपेक्षित माहौल बनना था वो बन ही नहीं पाया।

राजनीति की जमीन पर खड़े होने वाले यूं तो आपना कद मेहनत से बनाते हैं लेकिन प्रियंका को ये विरासत में हासिल था। उनके हिस्से में विरासत की कलई चमकाने की जिम्मेदारी थी, लेकिन उनका पहला ही कदम राजनीति में फ्लॉप साबित हुआ । प्रियंका भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर उर्फ रावण से मिलने चली गईं । इस मुलाकात से कांग्रेस को कुछ मिला नहीं बल्कि मायावती से नाराजगी अलग मोल ले ली । कुल मिलाकर दलित वोटों को साधने की उनकी मंशा भी जाहिर हो गई और हाथ  भी कुछ नहीं आया । इसी को कहते ना खुदा मिला ना बिसाले सनम।

राजनीति में सकेंतों के बड़े मायने होते है, भाषा, उपमा, अलंकार, बॉ़डी लैंग्वेंज भी राजनीति के महत्व को बनाते और बिगाड़ते हैं । जिस गंगा को देखकर मॉरीशस के राष्ट्रध्यक्ष ने डुबकी लगाने का कार्यक्रम रद्ध कर दिया था उस गंगा के तट पर  प्रियंका ने गंगाजल को हाथ में लेकर होंठों से लगाया था हिंदुत्व को साधने के लिए और  विरोधियों ने देर नहीं की नमामि गंगे की सफलता को प्रमाणित करने में । प्रियंका गांधी ने जनता से संवाद करने के लिए गंगा में  नौका यात्रा की और विरोधियों ने गंगा की सफाई पर अपनी मुहर लगावा ली । प्रियंका को मालूम होना चाहिए था कि जिस गंगा को लेकर वो राजनीति करने जा रही है उसमें उनकी भद पिट सकती है क्योंकि गंगा सफाई के नाम पर एक बार उनके पिता राजीव गांधी भी वोट मांग चुके थे ।  हनुमान मंदिर जाना, विंध्यवासिनी के मंदिर, यूपी के मंदिरों में प्रियंका गांधी का दौरा कोई छाप नहीं छोड़ पाया । जगजाहिर है कि  चुनाव के हिसाब से प्रियंका  अपनी वेशभूषा भी बदल  लेती है। राहुल की तरह प्रियंका की राजनीति में भी मौलिकता का अभाव है जिसकी वजह से वो जनता से  विश्वनीय संवाद कायम करने में वो नाकाम रही।

कांग्रेस ने स्टैंड तैयार किया कि चौकीदार चोर है प्रियंका ने चौकीदार को शहंशाह कह कर ये जता दिया कि इस कैम्पेन में कांग्रेस गच्चा खा चुकी है। प्रिंयका इससे पहले भी रायबरेली और अमेठी में अपने परिवार के लिए कैम्पेन कर चुकी है इसलिए आकर्षण वाला फैक्टर भी ज्यादा प्रभाव नहीं दिखा सका।

अगर इस चुनाव कोई चीज प्रियंका को सबसे ज्यादा सुर्खियां दिला सकती थी, अगर इस चुनाव में आखिरी चरण तक कोई बात कांग्रेस में जान फूंक सकती थी तो वो थी प्रधानमंत्री के खिलाफ प्रियंका की बनारस से दावेदारी । प्रियंका ने प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ने का सवाल पूछ कर दांव तो बहुत तगड़ा चला था और अगर वो ऐसा करने का दम दिखा देती तो जनता को यकीन भी दिला पाती कि वाकई वो इस चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है । ये चुनाव अपने आखिरी लम्हों तक जिंदा रहता।  ज्यादा से ज्यादा क्या होता प्रियंका चुनाव हार जाती । चुनाव तो इंदिरा जी भी हारी थी, अटल जी भी हारे थे लेकिन राजनीतिक करियर खत्म नहीं हुआ बल्कि संघर्ष के अगले पड़ाव की ओर अग्रसर हो चला । प्रियंका ने जोखिम नहीं लिया और जनता के बीच ये संदेश चला गया कि मोदी को हराना नामुमकिन है। बनारस से चुनाव लड़ने के मामले में प्रियंका खोदा पहाड और निकली चुहिया साबित हुई। उल्टे पीएम की खिलाफ  कमजोर प्रत्याशी उतारने वाले उनके बयान ने कांग्रेस की छवि यूपी में वोट कटवा पार्टी की बना दी ।  
पंडित नेहरू ने विदेशियों को सांप-सपेरों का खेल दिखा कर भारत की छवि सपेरों वाले देश की मजबूत की तो प्रियंका ने भी सपेरों से मन बहलाकर परिवार की इस परंपरा को आगे बढ़ाया । यूपी में  बच्चों से चौकीदार चोर के नारे लगवा कर प्रिंयका गांधी ने अपनी सस्ती सोच भी जाहिर कर दी औऱ जब छोटे-छोटे बच्चे गाली-गलौज पर उतर आये तो उनको शर्मिंदा भी होना पड़ा। उस पर प्रधानमंत्री पर ताबड़तोड़ निजी हमलों ने इस चुनाव में उनके स्वर्गीय पिता राजीव गांधी पर लगे  भष्ट्राचार के आरोपों को भी जिंदा कर दिया । 

इस चुनाव के चक्रव्यूह में प्रियंका बुरी तरह फंस गयी, ना तो वो  विरासत की गरिमा बचा सकी । ना परिवार की प्रतिष्ठा और ना ही अपनी पार्टी की विश्वसनीयता । मुहावरा है बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की । प्रियंका गांधी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश कुछ ऐसा रहा । 


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