Sunday, September 28, 2008

कैसे-कैसे लोग

जिन्हें आइना देखना चाहिए, वो बगले झांक रहे हैं
जिनकी सूरत से सीरत को नफरत है, वो सूरज पे थूंकने की गुस्ताखी कर रहे हैं
जिन्हें बोलने का सहूर नहीं, वो गीता और कुरान पर बहस कर रहे हैं
जिनके तन से दुर्गंध आती है, वो चंदन वन में नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं
तरस आता है ऐसे लोगों पर ...
वो बैठते है मंदिर में, बातें करते हैं बदनाम गलियों की
कपड़े साफ-सुथरे, जूतों में पॉलिश है, लेकिन आंखों में हवस नहीं छुपा पाते
जब वो गाड़ी में चलते हैं तो भीख देने के बहाने भिखारन के भी हाथों को छूते हैं
उनकी भी बहन है, मां है फिर भी ना जाने क्या हो जाता है
घिन आती है ऐसे लोगों से..
वो साथ में खाते-पीते हैं लेकिन पीठ में छुरा भोंकने में माहिर हैं
ज़रूरत पर वो नाक रगड़ लेंगे, मगर पीठ दिखाने का हुनर जानते हैं
भरोसे के सबसे बड़े पैरोकार, दगा की हर दास्तान में छाएं हैं
अदा की चमक में उनका साया खो जाता है, वो इसी फायदा उठा रहे हैं
डर लगता है ऐसे लोगों से...
मैं जताता हूं कि आप धोखेबाज़ है, मगर वो साथ छोड़ते
मैं बात करना भी पसंद नही करता वो हाथ नहीं छोड़ते
मुंह पर सरेआम सुन चुके हैं लेकिन मुस्कुराना नहीं छोड़ते
तंग आकर अब मैं मुंह फेर लेता हूं तो वो घूम के सामने खड़े हो जाते हैं
मुझे बचना है ऐसे लोगों से...