Sunday, September 27, 2009

...लेकिन उस नास्तिक को मरने मत देना




वो नास्तिक था क्योंकि उसने...
एक इंसान को दूसरे इंसान से लड़ते देखा।
उसने पूंजीपतियों को गरीबों का खून चूसते देखा।
उसने मजहब के नाम पर मौलवी, पादरी और पंडित की दुकान को देखा।
उसने ताकत के दम पर अंग्रेजों को मां भारती को रौंदते देखा।
तब कहां थे अंग्रेजों के परमपिता?
उस वक्त ना तो भगवान का पता था, ना खुदा का करिश्मा ?
तभी वो नास्तिक निकला।
वो नास्तिक था क्योंकि उसने...
लालाजी पर लाठी चलते देखा तो ऊपर वाले की लाठी को बेबस देखा।
आज़ाद की आजादी पर गोली चल गई तो भी उसने आसमान को मौन देखा।
सुखदेव के दुख को देखा, राजगुरू को तिल-तिल करते देखा, बटुकेश्वर को भटकते देखा।
ये सब के सब आजादी की दीवाने परमपिता के दुश्मन कैसे हो सकते हैं?
अल्ला से इनका क्या बैर, भगवान से क्या दुश्मनी हो सकती है?
तभी तो वो नास्तिक निकला ।
वो नास्तिक था क्योंकि उसने...
चमार और मेहतर के बच्चे को दलित कह कर पढ़ाई से वंचित करने की साजिश को देखा।
गलती से वेद पुराण सुनने वाले नीची जाति लोंगों के कानों में सीसे का लावा पिघलते देखा।
ऊंची जाति के नाम पर अय्य़ाशी में डूबे अन्यायी और दुराचारियों को देखा।
तब पूरी दुनिया को एक पिता की संतान मानने वाले चुप क्यों थे?
बंदे जब हाय राम- हाय राम रट रहे थे, तब लगता है रहीम भी साथ सो रहे थे?
तभी वो नास्तिक निकला।
वो नास्तिक था क्योंकि उसने ...
गूंगी-बहरी सरकार को सुनाने के लिए असेंबली में बम फेंका तो बम बम भोले को सकते में देखा।
उसने भारत को जलते देखा तो नीरो की तरह ऊपर वाले को बंसी बजाते देखा।
हजारों-लाखों लोगों के प्राणों के बलिदान को बौना और करबला को महान देखा।
राष्ट्र के संकट में भी पाखंडियों को पनपते देखा।
मानवता की मौत पर भी उसने दंभियों को मचलते देखा।
तभी वो नास्तिक निकला।
वो पक्का नास्तिक था क्योंकि उसने ...
भारत मां के आंसू के सामने अपनी मां के आंसुओं को अनदेखा कर गया।
देश की जवानी को जगाने की सोच में अपने बूढ़े पिता को दुनिया में अकेला छोड़ गया।
फांसी के फंदे पर झूलने के जोश में वो जिंदगी की प्रार्थना भूल गया।
लेकिन तब भी पीड़ पराई वाले बाबा को नेता की तरह सोचते देखा, सियासत के सौदों में व्यस्त देखा।
राष्ट्र्पुत्र के सामने राष्ट्रपिता को अपने कद का अनुमान लगाते मौन देखा!
तभी वो नास्तिक निकला।
लेकिन मैं कहता हूं ..
सबके सब मर जाएं..लेकिन उस नास्तिक को मरने मत देना ...
वर्ना गूंग- बहरों को सुनाने के लिए बम कौन फेंकेगा?
सम्मान के लिए सांडर्स के सीने पर गोली कौन मारेगा?
पाखंडियों को आइना दिखाने के लिए दम कौन भरेगा?
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ठीक मरने से पहले इंकलाब के उस सिपाही ने जिंदाबाद की जो अलख जगाई उसे पढ़ लो यकीन हो जाएगा कि वो पक्का नास्तिक था ...
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है?
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है?
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,

चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें

सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें ।


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Sunday, September 6, 2009

शिक्षक दिवस पर विशेष ...


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जब तक मैं स्कूली शिक्षा ग्रहण कर रहा था तब तक मेरे भीतर शिक्षकों के लिए आदर कूट-कूट कर भरा था। लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के दौरान शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं रहा। भटकाव का ऐसा दौर था कि ना तो कोई दिशा थी और ना ही कोई दिशा दिखानेवाला। दब कर रहा तो लोगों ने दबाया, उससे उबरने के लिए गलतियां शुरू की तो लोगों ने उसे भड़काया। उस गुस्से में लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। लेकिन स्कूली शिक्षा के दौरान जो बीज मेरे माता- पिता और शिक्षकों ने बोया था उसे तो पेड़ बनना ही था। बस यू समझ लीजिए बच गया उनके आशीषों की बदौलत और गलतियां करने से ..।
लेकिन कॉलेज के दिनों में लगता है मेरा वक्त कुछ खराब चल रहा था कि सच्चा सानिध्य, सही मार्गदर्शन, नहीं मिल पा रहा था। पता नहीं उस वक्त मेरी जिंदगी से शिक्षक कहां चले गये थे? ।और मेरा पक्के तौर पर मानना है जब -जब वक्त खराब होता है फिर वो चाहे व्यक्तिगत हो ,चाहे सामाजिक तौर पर हो या फिर राष्ट्र पर कभी कोई संकट आये उस वक्त रोशनी बनकर कोई दिशा दिखा सकता है तो वो है सिर्फ और सिर्फ एक शिक्षक। फिर वो चाहे किसी भी रूप में आए ...
इस संदर्भ में रामचरितमानस का एक बहुत ही सुंदर दृष्टांत है । तुलसीदास जी लिखते है कि हर तरफ अधर्म सिर उठा रहा था। अनाचार अनियंत्रित हो गया था ।
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा ।जे लम्पट परधन परदारा ।।
मानहीं मातु पिता नहीं देवा। साधुन्ह सन करबावहीं सेवा ।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानहु निसिचर सब प्रानी ।।
राष्ट्र पर आसुरी संकट का बोलबाला था। लेकिन इन सब दूर शांत निर्जन वन में आश्रम बना कर एक शिक्षक मानव कल्याण के नित नये शोध में तल्लीन था ।
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी।।
लेकिन बढ़ते अत्याचार, अनाचार और अन्याय ने उस शिक्षक को बेचैन कर दिया । राष्ट्र को संकट में देखकर छटपटा उठी उस शिक्षक की आत्मा। महामुनि विश्वामित्र को आश्रम का सुरम्य वातावरण नर्क लगने लगा।
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
गाधि के पुत्र विश्वामित्र ने अपनी तपस्या छोड़ दी , अपना आश्रम छोड़ दिया । छोड़ दिया हरितिमा से आच्छादित वो सुंदर वन प्रांत और हाथों में दंड लेकर कूच कर गये राजमहल की ओर। उन्हें जगाने के लिए, जो सत्ता सुख चूर थे। जिन्हें राष्ट्र का काम करना था वो महलों में परिवार के साथ मौज मस्ती कर रहे थे।
तब एक शिक्षक निडर होकर सत्ता को चुनौती देने के लिए, उसे ललकाने के लिए राज महल के दरवाजे पर खड़ा हो गया। लेकिन मानना पड़ेगा उस समय के शिक्षकों के दिये उन संस्कारों को !
राजा दशरथ को जैसे ही पता चला एक शिक्षक उनके दरवाजे पर खड़ा है। राजा ने अपना सिंहासन छोड़ दिया । अपना महल छोड़ा और नंगे पैर दौड़ पड़े शिक्षक का अभिनंदन करने । उनका स्वागत करने के लिए..।
तुसलीदास जी लिखते हैं ..
मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥
अपने सिंहासन पर शिक्षक को बैठाया। राजा दशरथ ने खुद विश्वामित्र के पैर धोएं। जी भर कर शिक्षक की सेवा की। जब संतोष हो गया तब बड़े ही हर्षित मन से राजा ने ऋषि से कहां .किसी से कहला दिया होता मैं खुद आश्रम आ जाता। हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा।
राजा का ये कहना थी कि विश्वामित्र ने खड़े होकर कहा राजन! इस राष्ट्र को बचाने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए, मानवता को महान आदर्शों को जीवित ऱखने के लिए मुझे तुम्हारे दो पुत्र चाहिए । ये देश बलिदान मांग रहा राजन! क्या तैयार हो...
असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
एक शिक्षक, एक पिता से राष्ट्र के लिए पुत्र का बलिदान मांग रहा था । राजा दशरथ की आत्मा अंदर से हिल गई। लेकिन शिक्षक का सम्मान इतना ऊंचा था कि शिक्षक को ना करने की हिम्मत नहीं थी उनमें ... सौंप दिया राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के हाथों ।
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥
राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। फिर कहा हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! अब आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं।
उसके बाद एक शिक्षक के मार्गदर्शन में राम और लक्ष्मण ने जो किया वो पूरी दुनिया के सामने आदर्श है ...।
रामचरित मानस का ये दृष्टांत आज के दौर के शासकों, शिक्षको और शिष्यों सभी के लिए उतना ही प्रासंगिक है जिनता उस समय था। अगर कोई देश कमजोर है, किसी दे्श में भ्रष्टाचार है किसी देश में अराजकता है तो आंख बंद करके ये मान लीजिए वहां का शिक्षक अपना धर्म भूल गया है....वहां के शिक्षक का वजूद संकट में है।

Thursday, September 3, 2009

शोक और श्रद्धा

शोक



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2001 में माधवराव सिंधिया, फिर राजेश पायलट और अब 2009 में वाइ एस राजशेखर रेड्डी । ना केवल कांग्रेस का, बल्कि देश का बहुत बड़ा नुकसान हो गया है। सालों के कठिन परिश्रम के बाद वाईएसआर जैसा करिश्माई नेता बनता है। वादों को निभाने वाली, दोस्तो को याद रखने वाली और दुश्मनों को कभी ना भूलने वाली वो शख्सियत। राजशेखऱ करीब 1500 किलोमीटर पैदल क्या चले, सॉफ्टवेयर क्रांति से पूरी दुनिया में हैदराबाद को चमकाने वाले चंद्रबाबू नायडू का सत्ता में काबिज रहने का सपना टूट गया। ये आंध्रप्रदेश की तकदीर थी कि सत्ता में वाइएसआर थे, तो विपक्ष में उतने ही उर्जावान चंद्रबाबू नायडू । अब आंध्र का वो सिक्का अधूरा- अधूरा लगेगा।

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श्रद्धा


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उधर, आंध्र में शोक का सागर था तो इधर मुंबई में अरब सागर बौना हो गया था । महासागर के मिलने पहुंचा था जनसागर। जब-जब गणपति बाप्पा मोरया की ऊंची-ऊंची लहरें उठती तो सामने शोर मचाने वाला समुंदर थम जाता था। सैकड़ों, हजारो, लाखों पता नहीं और कितने। लेकिन कहां से आये थे ये लोग? । क्योंकि घर से निकलते वक्त जो पान की दुकान पड़ती है वहां पर भीड़ वैसी ही थी। आगे एक सुपरमार्केट था वो भी रोज की तरह भरा- भरा दिखा । हाईवे का ट्रैफिक भी कम नहीं था जबकि स्कूल कॉलेज और दफ्तरों की छुट्टी थी। ऑफिस और उसके आसपास का माहौल भी वैसा ही था। जिन दोस्तों की छुट्टियां थी वो घरों में मौज कर रहे थे और फिर इस शहर में वो लोग ज्यादा है जो रोज कमाते है और रोज खाते है, वो अपना काम छोड़ कर इस भीड़ का हिस्सा नहीं बन सकते । तो फिर गणपति को विदा करने लोग कहां से निकल थे?
शहर में स्वाइन फ्लू की दशहत है लेकिन वो गुलाल उड़ा रहे थे। सबको पता है आतंकवादी घात लगा कर बैठे है लेकिन वो अपने छोटे- छोटे बच्चों को कंधे पर लाद कर साथ सड़क पर झूम रहे थे। हिंदू-मुसलमान के नाम पर कई बार बेकाबू हुआ है ये शहर, लेकिन सैकड़ों मुस्लिम युवक ऐसे दिखे जो थके हुए लोगों को पानी पिला रहे थे, उनके खाने- पीने का इंतजाम कर रहे थे। औरतें और लड़कियां पता नहीं उन्हें क्या हो गया था, वो भी बेखौफ थीं, बारिश में भींगते हुए बढ़ रही थीं समुंदर की तरफ। क्या इन लोगों को थकान नहीं हुई होगी, सुबह से शाम और शाम से रात लेकिन सब के सब मस्ती में चूर? क्या ये लोग नशे में थे? कौन सा नशा किया था इन लोगों ने?
शायद ये वो नशा है जो मीरा ने किया था, दीवानी ज़हर का प्याला पी गई थी अमृत समझ कर।
शायद ये वो नशा है जो रसखान ने किया था, बृंदावन में लोटते थे कि इस मिटटी का कोई तो कण कृष्ण के पैर में लगा होगा।
शायद ये वो नशा है जो भगत सिंह ने किया था, आजादी दुल्हन लगती थी और फांसी का फंदा वरमाला।
ये भी वही नशा है, श्रद्धा का नशा, विश्वास का नशा, आस्था का नशा, भक्ति का नशा । बस मुंबई वालों का ब्रांड बदल गया है।
शबरी को रामभक्ति का नशा था
रसखान को कृष्णभक्ति का नशा था
भगत सिंह को देशभक्ति का नशा था
और मुंबई को नशा है गणपति बाप्पा मोरया की भक्ति का । एक बार चढ़ता है लेकिन पूरे साल खुमार रहता है और तब तक रहता है जब तक दोबारा फिर ना चढ़ा लो, और इसी तड़प में लोग कहते हैं अगले बरस तू जल्दी आना .....

Wednesday, September 2, 2009

क्या आप झलकारी को जानते हैं?



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मेरी एक दोस्त ने मुझे आज झलकारी की याद दिला दी...
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पता नहीं इस देश के मौजूदा बच्चे झलकारी को जानते हैं कि नहीं? मेरी पीढ़ी को झलकारी के बारे में कितना पता है ये भी मुझे नहीं मालूम। बॉलीवुड में भी एक नहीं, कई प्रोजेक्ट है जो झांसी की रानी पर फिल्म बनाना चाहते हैं लेकिन कही कोई झलकारी का जिक्र नहीं करता। अंग्रेजों से झांसी की रानी बन कर लड़ी थी झलकारी बाई। जनरल ह्यूरोज ने गिरफ्तार झलकारी को देखकर कहा था अगर ऐसी जैसी दो -चार वीरांगनाएं और होती तो ब्रितानी हिदुस्तान में इतना नहीं टिक पाते। महान कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की झांसी की रानी की गाथा( बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब मड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी) पर तो सबको नाज है, लेकिन उतने ही सम्मान की हकदार है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की दुर्गा दल की वो सेनापति- झलकारी बाई। अगर राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त भी झलकारी बाई को भूल गये तो वो शायद अतीत के गहरे गर्त में कही खो जाती!
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी। गोरों से लडना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी ।।
लेकिन जब मैंने झलकारी को जाना तो वो मेरे लिए सिर्फ वीरांगना नहीं है...
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वो तो दोस्ती पर मर मिटनेवाली इबादत है
वो कर्म पर कुर्बानी सिखाने वाली गीता है
वो रिश्तों का आदर करने वाली रामायण है
वो शत्रु के रक्त से नहाने वाली महाभारत है
वो स्वभामिमान का मक्का और सम्मान की मदीना है
वो दीन-दुखियों के दिल को सुकून देने वाली गुरूवाणी है
वो दलित की बेटी पोगापंथ से लड़ते कबीर की साखी में मिल जाएगी
रहीम के दोहों में उसका प्रेम पसरा पड़ा है
और ये सब सिर्फ झलकारी की एक झलक है
उसमें तो धर्म की झंकार भी है
महाकाव्य का झरना भी है
वो गर्व और गौरव का सबसे ऊंचा झंडा है।

Tuesday, September 1, 2009

बीजेपी की ये दुर्गति जारी रहेगी!

कहां गईं मेरी पंखुड़ियां?
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मेरे पिताजी ने कॉलेज के दिनों में मुझे बताया था पांच अटल बिहारी बाजपेयी को एक साथ मिलाआगे तो भी दीनदयाल उपाध्याय जैसी महान शख्सियत को तैयार करना मुश्किल होगा। मेरे मन में अटलजी की छवि इतनी ऊंची है तो पता नहीं दीनदयालजी का कद कितना महान रहा होगा। कांग्रेस के शासन दौर में विपक्ष के सबसे बड़े नेता सिर्फ दो जोड़ी धोती-कुर्ते में अकेले ही एक कार्यकर्ता बनाने के लिए गांव- गांव में घूमते थे। धोती के पीछे लगे बवासीर के खून को दाग छुपाने के लिए अखबार हमेशा पीछे रखते थे। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, पता नहीं कैसे मुगरसराय रेलवे स्टेशन में लावारिस की तरह उनकी लाश पाई गई। बीजेपी का शासन आकर चला गया..सरकार, सारा तंत्र मुट्ठी में था, लेकिन किसी को ये सुध नहीं रही.. ये पता लगा लेते कि जिनकी बदौलत वो मलाई खा रहे हैं उस महान दीनदयाल को किसने मारा? क्या वो महज हादसा था या साजिश? श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत कैसे हुई? बस्तर के महाराज प्रवीरचंद भंजदेव की हत्या कैसे हुई?
एकात्म मानववाद जैसे सूत्र, राम और राम राज्य का दर्शन, दीन दयाल जैसे नेताओं को हासिल करने का ...मेरे जैसे लाखों नौजवानों का स्वप्न चकनाचूर हो गया। उल्टा गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा से जूझते देश की आंखों में इंडिया शाईनिंग ने नाम की काली पट्टी बांधने की साजिश रची गई। अच्छा हुआ बच गया देश...। वरना मद में अंधा हाथी जो करता है शायद उससे भी बुरी गत होती ...।
इसी को कहते है नीयत। जो सत्ता के नशे में डोल गई। बीजेपी गंगोत्री से लेकर बंगाल की खाड़ी तक मैली हो गई है। जिन नेताओं पर कभी कार्यकर्ता मरने -मिटने को तैयार रहते थे। जिनकी कही एक एक बात पत्थर की लकीर होती थी अब वही नेता बोलते हैं तो लोग टीवी का ट्यून बदल देते हैं। जन सभाओं में जो करिश्मा पहले दिखता था अब पैसे खर्च करने पर भी कामयाब नहीं हो पाता। याद है वो दिन जब राम मंदिर का संकल्प लेकर निकले आडवाणीजी को समस्तीपुर में गिरफ्तार किया गया तो बिना बोले देश बंद हो गया था। आज उन्ही आडवाणीजी को, उन्हीं की पार्टी के शासित प्रदेश की एक जनसभा में उन्हीं की पार्टी के एक शख्स ने चप्पल दिखा दी। बचा क्या?
बीजेपी से जुड़े कार्यकर्ता जानना चाहते है कि इस देश में क्या महापुरूष कम पड़ गये थे, क्या डर लग गया था कि दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेने से सांप्रदायिकता का लांछन लगेगा! क्या श्यामप्रसाद मुखर्जी के बलिदान की बातें कथित धर्मनिरपेक्षता की छवि बनाने में रोड़ा बनने लगी थीं, जो पाकिस्तान जाकर जिन्ना की मजार पर मत्था टेककर आना पड़ा था। क्यों? ये हक है बीजेपी के हर उस कार्यकर्ता का जो चना- मुर्रा और पानी पीकर बीजेपी को सत्ता तक लेकर गया था। माननीय जसवंत सिंह ने किताब में जो भी लिखा जिन्ना के बारे में वो उनका बौद्धिक मत हो सकता है। लेकिन बीजेपी को, बीजेपी के कार्यकर्ता को और देश को जिन्ना से क्या लेना- देना। हिंदुस्तान समुंदर डूब कर बाहर आ जाएगा लेकिन दावे के कह सकता हूं कलाम की बातें ये देश कलमा की तरह पढ़ने को तैयार है लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना हमारे प्रेरणास्त्रोत कभी नहीं बन सकते।
चलिए आदर्श सिद्धांत और महापुरूषों की बाते छोड़िए ...बीजेपी जब सत्ता में आई तो नया क्या हुआ? योजनाएं तो कांग्रेस की सरकार भी बनाती थी, भष्ट्राचार तो कांग्रेस के शासन में भी होता था। आम जनता अब ये जानने लग गई है कि किसी नई योजना का मतलब पैसे बनाने का एक और जुगाड़। बीजेपी में हजारों लाखों नेता ऐसे हैं जिन्होंने भूखे रह संघर्ष किया है लेकिन आज वो कोठियों रहते है...करोड़ों का कारोबार करते हैं...पहले वो आर्दश की बातें कह कर कार्यकर्ता तैयार करते थे अब उन्हें ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि पैसे के दम पर वो चुनावों को मैनेज करना सीख गये हैं। बीजेपी से जुड़े आम लोग समझने लग गये उन नेताओं के पास खाली हाथ जाओगे तो खाली हाथ ही आओगे। इस देश में बीजेपी का सत्ता में आने से एक परिवर्तन ये हुआ है कि एक नया धनाढ्यवर्ग खड़ा हुआ है ...बस! व्यक्तिगत तौर बीजेपी को एक फायदा और हुआ है वो ये कि जिस पार्टी को पहले चुनाव लड़ाने के लिए उम्मीदवार तलाश करने पड़ते थे अब वहां सौदेबाजी होती है ।
न्याय आज भी आम आदमी से कोसों दूर है। देश के किसी भी तहसीलदार के दफ्तर में चले जाइये और देखिए जिस किसान को खेत में फसल खड़ी करने के पसीना बहाना चाहिए, वहां उस किसान के भूखे नंगे बदन को वकील और बाबू कैसे नोंचते हैं। गरीबी पर रौब देखना हो तो किसी भी पुलिस थाने में चले जाइये। नकली दूध, नकली सब्जी, नकली दवाईयां धड़ल्ले से बिक रही है लेकिन एसडीएम के दफ्तर से लेकर प्रदेश और क्रेंद के सचिवालय तक हर जगह मैंनेजमेंट की दुकान चल रही है, फुरसत कहां है अधिकारियों को। सरकार ने गांव गांव में स्कूल तो खोल दिए है लेकिन ये कौन देखगा कि शिक्षक जाता है कि नहीं ...वो क्या पढ़ा रहा है ...हां... वहां जो मिड डे मील बंटता है उसके कमीशन की सबको चिंता है। इनको कौन बताए सिर्फ भत्ता देने बेरोजगारी मिटनेवाली नहीं ...। हां ये सारी बातें चुनावी घोषणापत्र में जरुर दिख जाएंगी ...।
कुल मिला कर बात ये हैं कि बीजेपी कोई परिवर्तन नहीं कर सकीं । उसने अपना विश्वास खो दिया है...वो अब सिर्फ विकल्प बन कर रह गई है..."वो" नहीं तो "ये" वाली बात है...।
बहुत अच्छा लगता है जब राहुल गांधी बातें कम करते हैं और गांव- गांव में घूमते हैं। कम से लोगों से मिल तो रहे है। बिना राजनीतिक लाग लपेट के साथ- सुथरे तरीके से अपनी बात कहते हैं। और ये उसी नीयत का करिश्मा है कि यूपी में मरी हुई कांग्रेस जिंदा हो गई ... बीजेपी ने अपनी इस ताकत को छोड़ दिया है और कांग्रेस ने अपना लिया है।
लेकिन अभी बीजेपी के पास ये सब सोचने का ना तो वक्त है और ना ही ताकत बची है क्योंकि वो अपना बिखरा सामान बटोर रही है...।