Wednesday, May 24, 2017

पूरब, पश्चिम और उत्तर के बाद दक्षिण को जीतने की तैयारी में अमित शाह

2019 में तेलंगाना को करेगी बीजेपी टारगेट

तेलंगाना दक्षिण में बीजेपी के लिए प्रवेश द्वार बने,  अब अगर अमित शाह ने ऐसा ठान लिया है और एलान कर दिया है  तो खलबली तो मचनी ही थी । अपने तीन दिन के तेलंगाना प्रवास के दौरान उन्होंने वहां के मुख्यमंत्री की रातों की नींद और दिन का चैन सब छीन लिया । मुख्यमंत्री पर राजनीतिक हमला बोलने का शाह ने कोई मौका नहीं छोड़ा । उन्होंने मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव पर नाकामी का आरोप लगाते हुए कहा कि वो केंद्र सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लागू करने में पूरी तरह से नाकाम है। अब एक हाई प्रोफाइल और हैवीवेट पार्टी प्रेसीडेंट का तेलगांना की चिलचिलाती धूम में यूं दरवाजे-दरवाजे पर जाना ये बताता है कि बीजेपी का प्लान ऑफ एक्शन कितना तगड़ा और महत्वाकांक्षी है।
22 मई को अमित शाह ने नल्लगोंडा जिले के  थेराटपल्ली गांव की दलित कॉलोनी में लंच करके ये बता दिया पार्टी हर स्तर पर खुद को मजबूत करेगी । उन्होंने पार्टी के लिए शहीद होने वाले कार्यकर्ता जी मेसैय्या की प्रतिमा का अनावरण के करके कार्यकर्ताओं को संदेश दिया कि उनका बलिदान बेकार नहीं होगा। घर-घर जाकर अमित शाह ने खुद अपने हाथों से "मेरा घर-भाजपा का घर" स्टीकर चिपकाया । वेलुगोपल्ली गांव में शाह ने दीनदयाल उपाध्याय की प्रतिमा का अनावरण भी किया ।

23 मई को शाह चिन्नमाद्रम गांव में अपने अभियान की शुरूआत विवेकानंद की प्रतिमा के अनावरण से की । यहां उन्होंन एक तीर से कई निशाने साधे । इस गांव की महिला सरपंच भाग्यअम्मा  को शाह ने सम्मानित किया । सरपंच भाग्यअम्मा की तारीफ कर शाह ने गांव के छोटे- छोटे कार्यकर्ताओं की ये संदेश देन की कोशिश की पार्टी सबका साथ और सबका विकास के नारे को पूरे अंत:करण से अपना चुकी है। गांव के हर घर में टायलेट बनाने की कोशिश हो, गांववालों को जन-धन योजना से जोड़ना हो या फिर पीएम उज्जवला योजना का लाभ दिलाना हो सरपंच भाग्यअम्मा ने बीजेपी अध्यक्ष की सराहना हासिल की। उन्होंने पिछड़े लोगों की सभा को भी संबोधित किया । नारीरेकल विधानसभा क्षेत्र में गुंद्रामपल्ली गांव में उन्होंने द्वार-द्रार पहुंच कर संपर्क किया, स्थानीय वरिष्ठ लोगों को सम्मानित  किया और उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश की वर्तमान सरकार पूरी तरह से गरीबों के उत्थान में लगी है ।

आखिर में हैदराबाद में बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन के माध्यम से वो पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने में भी कामयाब रहे । जिस तरह से उन्होंने तेलगांना सरकार को आड़े हाथों लिया उससे ये तो साफ हो गया कि बीजेपी तेलगांना में अपने लिए जमीन तैयार करने में जुट गई है । बीजेपी की इस मेहनत को देखते हुए सत्तारुढ़ टीआरएस का तिलमिलाना लाजिमी है ।
लक्ष्यद्वीप के बाद जिस तरह से अमित शाह तेलगांना बीजेपी में प्राण फूंके है ,पार्टी प्रेसीडेंट का राज्य के घऱ-घर में जाकर  लोगों के मुलाकात करने की आक्रामक रणनीति से ये तो तय हो गया है कि बीजेपी अपने मौजूदा विस्तार से खुश होकर बैठने वाली नहीं है। पार्टी ने जैसे उत्तर भारत, पश्चिम भारत और पूर्वी भारत में अपना परचम फहराया है वो कुछ वैसा ही करिश्मा दक्षिण भारत में करना चाहती है । दक्षिण में द्वार-द्वार शाह की दस्तक में ये सकेंत साफ छुपा है वो पार्टी के लिए  ऐसी देशव्यापी जमीन तैयार करने में लगे है जहां विरोधियों के लिए पैर रखने की भी गुंजाइश ना हो । पार्टी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को पीछे छोड़ कर आगे की सोच रही है जिसमें लक्ष्य है यत्र, तत्र, बीजेपी सर्वत्र ।  

चार जून को भारत शौर्य और पाकिस्तान अपनी शर्मिंदगी लेकर उतरेगा # चैम्पियन्स ट्रॉफी2017

एजबेस्टन में एक बार फिर क्रिकेट के बहाने साख का संग्राम और भी कांटे का होगा
उस दिन पाकिस्तान की हंसी मर गई थी, पाकिस्तान क्रिकेट टीम की लाचारी और बेबसी के आलम को बयां करना अमानवीय बर्ताव लग रहा था । ऐसे लगा था कि मरे हुए को और कितना मारें । खिलाड़ियों के कंधे झुके हुए थे, आंखें धंसी हुई थी, चेहरे में नूर का नामों- निशान दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। 
उस दिन मैच के खत्म होने के बाद एक देश के लिए मैदान में हरे लिबास में हताशा ही हताशा बिखरी हुई थी । दर्शक दीर्घा में जो लोग चेहरे पर हरा रंग पुतवा कर आये थे वो मैच के खत्म होने के बाद हार का प्रतीक बन गये । हरे झंडे को लहराने वाले क्रिकेट फैन्स  में उस दिन मैच के बाद हरियाली को उठाने की ताकत खो चुके थे। 
पाकिस्तान की टीम जब आईसीसीस चैम्पियन्स ट्रॉफी 2013 का तीसरा मैच  हारी तो ऐसे लगा जैसे गब्बर सिंह चट्टान पर खड़े होकर  चीख -चीख कह अट्टहास कर रहा हो कि तीनों के तीनों हार गये हा.. हा... हा ...आये थे पांच मैंच खेलने और तीन में ही बाहर हो गये ...ये तो बहुत नाइंसाफी है । उस दिन मानों क्रूर गब्बर ये कह रहा हो कि जब पाकिस्तान के किसी गांव में बच्चा रोता है ना तो मां कहती है कि बेटा सो जा भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान की टीम को पीट रही है और फिर पाकिस्तान के कई इलाकों में लोग टीवी पर एक साथ लाठी, डंडे और गोलियों की बौछार के साथ बरस पड़ते हैं । ये सब कुछ होता है इंगलैंड के एजबेस्टन में और करीब 6000 से ज्यादा किलोमीटर दूर पाकिस्तान के गांवों की गलियों में मातम परस जाता है और इसके लिए जिम्मेदार था उसका परंपरागत प्रतिद्वंदी भारत ।  

दो हजार तेरह आईसीसी चैम्पियन्स ट्रॉफी में  पाकिस्तान की टीम के बल्लेबाज किसी एक मैच में  दौ सौ  रन बनाने को तरस गये थे । एक सौ सत्तर, एक सौ सठसठ और भारत के खिलाफ एक सौ पैसठ । पाकिस्तान के शूरवीरों की कहानी और गजब की थी ।  मोहम्मद हफीज ने कुल इकसठ गेंदों का सामना ही कर सके और उनका अधिकतम स्कोर था सत्ताइस रन और औसत करीब साढ़े बारह रन का ।  शोएब मलिक ने कुल तिरपन गेंदों का सामना किया और उनका औसत था साढ़े आठ रन का । उनके तीन बल्लेबाज ऐसे थे जो तीनों मैचों में मिलकर तीस का आंकड़ा पार नहीं कर सके थे। 
वहीं पंद्रह  जून दो हजार तेरह को एजबेस्टन में पाकिस्तान को रौंदने के बार भारत के सूरमा एक नया इतिहास लिखने की दिशा में बढ़ चुके थे । 2013 के उस टूर्नामेंट का जिक्र आते ही दुनिया के सामने शिखर धवन की शौर्य की कहानी याद आ जाती है ।  पांच मैचों में उन्होंने करीब 90 की औसत से दो शतक और एक अर्धशतक की मदद से 363 रन बनाये थे । शिखर मैन ऑफ द सीरीज रहे । टूर्नामेंट के टॉप फाइव बल्लेबाजों में रोहित शर्मा और विराट कोहली छाये रहे । इंगलैंड के विरूद्ध फायनल मैच में रवींद्र जडेजा ने हरफनमौला खेल दिखाकर मैन ऑफ द मैच का खिताब अपने नाम किया था । वो टूर्मामेंट के सबसे शीर्ष विकेट टेकिंग गेंदबाज भी रहे । 
बतौर टीम भारत के लिए 2013 की चैम्पियन्स ट्रॉफी कभी ना भूलने वाली ट्रॉफी थी इसमें भारत ने अपने सारे के सारे मैच जीते और महेंद्र सिंह धोनी भारत के ऐसे पहले ऐसे कप्तान बने , जिन्होंने भारत को आईसीसी के  टी-20 विश्व कप, विश्व कप और फिर  चैम्पियंस ट्रॉफ़ी का ख़िताब जितवाया । 
साफ जाहिर है इस बार  4 जून को एजबेस्टन में एक बार फिर जब क्रिकेट की दुनिया के सबसे बड़े रायवल आमने-सामने होंगे तो भारत के सिर पर उसके शौर्य का ताज होगा  और पाकिस्तान अपनी शर्मिंदगी के बोझ तले, बनावटी उत्साह के साथ अपने देश को अपने क्रिकेट पर यकीन दिलाने के लिए जूझ रहा होगा और हरे रंग में सिमटी हर चीज उस दिन सहमी-सहमी होगी । 

Sunday, May 21, 2017

राजेश कुमार को रेड इंक अवॉर्ड

मुंबई प्रेस क्लब देगा एक लाख रुपये और प्रशस्ति पत्र
देश के मूर्धन्य पत्रकारों के "रेड इंक अवॉर्ड"  क्लब में जब राजेश कुमार का नाम के शुमार होने का जानकारी मिली तो मेरे हर्ष की सीमा ना रही । मुझे ऐसे लगा जैसे मुझे ही कोई सम्मान मिला हो और फिर इस खुशी को जब मैंने अपने मित्रों से साझा किया वो भी खुश हुए बिना नहीं रह सके। ये सभी के लिए गर्व का एक विषय था जिसे हर कोई सेलब्रेट करना चाहता था। यही राजेश कुमार की कामयाबी का राज है पत्रकारिता जैसे पेशे में हर किसी के बीच समान रूप से लोकप्रियता हासिल करने वाले वो देश के बिरले पत्रकारों में शामिल हैं ।
राजेश से मेरी मुलाकात मुंबई ब्यूरो में आजतक में काम करने के दौरान हुई, उन्होंने बतौर क्राइम रिपोर्टर ज्वाइन किया था। मेरी जो भी मजबूरियां रही हो राजेश कुमार की पीटीसी शुरूआती दिनों में आये दिन नहीं लग पाती थी। लेकिन राजेश जैसे तेजतर्रार और ठोस रिपोर्टर का यूं मौन रह जाना मुझे सोचने पर मजबूर जरूर करता था । लेकिन राजेश ने धैर्य नहीं खोया ना ही कभी संयम । शायद एक पेशेवर पत्रकार के हुनर को राजेश ने अपनी शुरूआती दिनों में ही अपने आचरण का हिस्सा बना लिया था और यही वजह रही कि थोड़े ही दिनों में राजेश मुंबई ब्यूरो के लिए एक एसेट साबित होने लगे थे  ।
राजेश ने आजतक के मुंबई ब्यूरो में काम करते हुए जो छाप छोड़ी थी उससे प्रभावित होकर ही मैंने राजेश को अपने साथ इंडिया न्यूज लेकर जाने का मन बनाया। कुछ कारणों से मैं इंडिया न्यूज को अपनी सेवायें नहीं दे सका लेकिन राजेश ने वहां अपनी उपयोगिता को साबित किया। इंडिया न्यूज में राजेश कुमार के काम करने का दायरा देशव्यापी हो गया। उन्होंने चुनाव के लिए देश के भीतर से लेकर सरहद तक की रिपोर्टिंग की है । सर्जिकल स्ट्राइन के दौरान जान को जोखिम में डाल कर एलओसी से रिपोर्टिंग करने वालों पत्रकारों में राजेश कुमार का नाम शुमार है । राजेश देश के उन चुनिंदा पत्रकारों में हैं  जिन्होंने  डिफेंस की रिपोर्टिंग की बाकयदा ट्रेनिंग ली है ।
मुद्दा कोई भी हो राजेश ख़बर की नब्ज़ पकड़ते हैं । सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने को लेकर राजेश में एक जुनून है ।न्यूज के मामले उनमें एक ग़ज़ब की धुन है । लेकिन इससे अच्छी बात जो उन्हें एक बड़ा पत्रकार बनाती है वो है उनका संयमित और सुलझा आचरण। वो सनसनी पैदा करने वाली पत्रकारिता करने के बजाय खबर की गंभीरता के हिसाब से चलने में यकीन करते हैं ।
राजेश कुमार ने मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की सूखे की स्थिति को लेकर जो रिपोर्टिंग प्रस्तुत की वो आंखें खोलने वाली थी। शासन से लेकर प्रशासन तक सूखे की इस भयावहता को जानकर हैरान रह गया था। राकेश ने किसानों की केस स्टडी की। जमीनी  हकीकत को समझा और दुनिया को बताया कि बुंदेलखंड का सूखा सिर्फ एक इलाके की समस्या नहीं है ये आनेवाले कल की कई इलाकों समस्या है । समय रहते नहीं चेते तो देश के कई इलाके बुंदेलखंड जैसे सूखे से जूझने के लिए मजबूर हो जाएंगे । मानवता को झकझोर देनेवाली इस रिपोर्टिंग को मुंबई प्रेस क्लब ने सबसे आला दर्जे की रिपोर्टिंग माना और  राजेश को अपने सबसे प्रतिष्ठित "रेड इंक अवॉर्ड" से सम्मानित करने का फैसला लिया ।
अब आप सोच रहे होंगे जो शख्स पत्रकारिता के इतने व्यापक स्तर पर बारीक पकड़ रखता होगा वो जरूर कोई बेहद धीर-गंभीर व्यक्ति होगा, तो सुनिए काम के मामले राजेश जितने गंभीर हैं दोस्तों के बीच वो अपने भोलेपन के लिए उतने ही लोकप्रिय। राजेश की सादगी और भोलापन पत्रकारिता के पेश में उन्हें विश्वसनीय बनाती है । राजेश पत्रकारों की भीड़ में शामिल नहीं है वो पत्रकारों की भरोसेमंद टोली का हिस्सा है । मेरा यकीन मानिए मुंबई के एनसीपीए थियेटर में जब राजेश को "रेड इंक अवॉर्ड" से नवाजा जाएगा तो सम्मान खुद को गौरवान्वित महसूस करेगा। ये उपलब्धि राजेश की एक सिर्फ शुरुआत है आने वाले कल में पूरा आकाश पड़ा है उनके पत्रकारिता की  व्याख्या करने के लिए ।
शुभकामनाएं राजेश

Friday, May 19, 2017

छोटे से लक्षद्वीप से अमित शाह ने साधा बड़ा लक्ष्य

निगाहें लक्षद्वीप पर और निशाना केरल और मुस्लिम मतदाताओं पर!

ये बात राजनीति के  पंडितों को जरूर हैरान और परेशान कर रही होगी कि आखिर मौजूदा दौर की देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष, सत्ताधारी दल की पार्टी का अध्यक्ष, सबसे हाईप्रोफाइल अध्यक्ष अमित शाह,  देश के सबसे छोटे क्रेंद शासित प्रदेश लक्षद्वीप में आखिर तीन दिन से क्या कर रहे हैं? 
अमित शाह सोलह, सत्रह और अठारह मई को लक्षद्वीप में रहे । द्वार-द्वार जाकर उन्होंने लोगों से मुलाकात की। वो बूथ स्तर पर पहुंचे और पार्टी के कार्यकर्ताओं से मुलाकात की । लोगों से व्यक्तिगत तौर पर मिले। उनकी सभ्यता और संस्कृति में खुद को ढाला और उनके रंग में मगन दिखे अमित शाह।
अमित शाह स्थानीय मछुआरों के घर गये । बयालिस साल के अब्दुल खादेर के घर उन्होंने भोजन किया, वो एक अन्य मछुवारे अब्दुल रहमान के घऱ भी गये। बीजेपी नेता छिहत्तर साल की वरिष्ठ लोक गायिका पू से भी मुलाकात की।  गायिका वृद्धावस्था की बीमारियों के चलते बिस्तर पर हैं, शाह ने गायिका की बेटी से उनकी सेहत के बारे में बात की। 
इतने बड़े कद के राजनीतिक व्यक्ति का आत्मीयता से भरा ये आचरण मौजूदा दौर में विरला ही देखने को मिलता है। ये ठीक है कि इसके पीछे बीजेपी नेता की सोच सियासी ही रही होगी लेकिन स्थानीय लोगों के लिए उम्मीदों से भरी थी। स्थानीय उम्मीद थी चिकित्सकीय आवश्यकताओं की, उम्मीद शैक्षणिक ज़रूरतों की । क्योंकि यहां के लोग अपनी इन मूलभूत ज़रूरतों के लिए अब तक कोच्चि पर निर्भर हैं। 
लेकिन शाह ने अपनी यात्रा में यहां के लोगों को उम्मीद से कई गुना ज्यादा देने का भरोसा दे दिया।  उन्होंने वादा किया कि वो नवंबर के महीने में  प्रधानमंत्री को यहां लेकर आएंगे और कोशिश करेंगे के वो पूरे दिन यहां रहें । उन्होंने लक्षद्वीप की राजधानी को जल्द से जल्द स्मार्ट सिटी बदलने का वादा किया, इसके लिए हर वो चीज करना चाहते हैं जो यहां के लोगों के लिए बरसों से दूर की कौड़ी रही मसलन कोल्ड स्टोरेज सुविधा, पूरे द्वीप पर पीने के पानी की सुविधा, फोर-जी कनेक्टिविटी, मालवाहक जहाज उपलब्ध कराने का भरोसा भी उन्होंने दिया । यहीं नहीं उन्होंने विकास के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की भी बात की।   
है ना सोचनेवाली बात है कि जिस केंद्र शासित प्रदेश में दस बसे हुए और सत्रह निर्जन द्वीप हैं। कोई 60 से 70 हजार की आबादी होगी लक्षद्वीप की। सिर्फ एक लोकसभा सीट है, वो भी रिजर्व। दो हजार चौदह के आम चुनाव तक यहां हमेशा से कांग्रेस ही जीतती रही सिर्फ एक बार यहां से जनतादल के प्रत्याशी को सफलता मिली है । वो भी ये एक  मुस्लिम बहुल इलाका है। वहां मोदी के इस सिपहसलार की ऐसी कड़ी मेहनत । जाहिर है शाह रेत से तेल निकाल कर ही दम लेंगे ।  
अब अगर बीजेपी अध्यक्ष खुद बूथ स्तर पर पहुंचकर सिर्फ एक लोकसभा सीट वाले इस क्रेंदशासित प्रदेश में अकेले मेहनत कर रहे हैं तो जाहिर है लक्षद्वीप भले छोटा हो लेकिन उनका लक्ष्य बहुत बड़ा है और वो लक्ष्य है लोकसभा चुनाव 2019, वो लक्ष्य है केरल, दक्षिण के इस राज्य में घुसना है तो कहीं पर पैर जमाना ही होगा । लक्ष्य है मुस्लिम मतदाता, इन्हें भाजपा से जोड़ना है तो कहीं से तो ठोस शुरूआत करनी होगी । लक्ष्य है आम आदमी, संदेश ये जाना चाहिए कि राज्य बड़ा हो या छोटा बीजेपी एक- एक व्यक्ति कि चिंता कर रही है । लक्ष्य है एक-एक सीट पर बीजेपी को स्थापित करना। ताकि देश का कोई भी कोना बीजेपी की जद में बाहर ना जाने पाये।  
बीजेपी प्रेसीडेंट अच्छे से जानते हैं कि जब दो हजार चौदह के मुकाबले दो हजार उन्नीस में उनके मतदाताओं की संख्या बढ़ जाएगी, उनके सांसदों की संख्या बढ़ जाएगी तो शाह और मोदी की ताकत भी कई गुना बढ़ जाएगी । और यही होगा इस सरकार की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण। अपने टिवट् पर अमित शाह ये बात उद्घाटित भी करते हैं कि अलग-अलग राज्य, अलग-अलग  लोग, अलग-अलग संस्कृतियां लेकिन बीजेपी के लिए वही जोश, वही सहयोग।

महल छोड़कर मोहब्बत की महारानी बनीं जापान की माको

प्यार के लिए राजमहल छोड़ना ही पड़ता है

इस देश में प्यार की ताकत देखिए फिल्म बाहुबली -2 ने अपनी प्रेम कहानी के दम पर सिर्फ 19 दिन में डेढ़ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई कर ली । फिल्म का नायक अपनी प्रेमिका के लिए अपनी राजगद्दी को ठोकर मार देता है । सिर्फ अपने वचन के लिए ,अपने प्यार को अपना बनाने के लिए वो अपनी प्रेमिका के लिए अपने शत्रु का नौकर बनना स्वीकार कर लेता है । 
भारतीय फिल्मों में प्रेम का तड़का उतना ही पुराना है जितना इसका इतिहास । बाहुबली -2 की प्रेम कहानी में कोई नवीनता नहीं थी ऐसा हम सैकड़ो फिल्मों में पहले भी देख चुके हैं लेकिन शायद प्रेम में सुख की निरंतरता कुछ ऐसी है कि किरदारों के बदल जाने के साथ ही वही पुरानी कहानी, वही पुराने गीत वही पुरानी परिस्थितियां नये शब्दों के साथ नये सुरों से संवर कर एक नयी ताजगी का अहसास करा देती हैं। 
इधर भारत के लोग सिल्वर स्क्रीन पर बाहुबली को अपने देवसेना के लिए राजगद्दी छोड़ते देख रहे हैं तो उधर जापान में  रियल लाइफ में वहां की जनता ऐसा होते हुए देख रहे हैं ।  25 साल की जापान की राजकुमारी माको अपने प्यार को पाने के लिए शाही रूतबे को छोड़ रही है  क्योंकि जापान के राजघराने के नियमानुसार अगर शाही परिवार का कोई सदस्य किसी आम आदमी से शादी करता है तो उसे राजघराना छोड़ना होता है। 
माको की मुलाकात पांच साल पहले अपने साथ पढ़ने वाले केई से होती है और फिर दोनों के बीच मोहब्बत के फूल कुछ यूं गुलजार होते है कि राजकुमारी माको एक साधारण इंसान केई के लिए अपना महल छोड़ने का फैसला ले लेती हैं । राजकुमारी माको अपने शाही रुतबे को छोड़ने में पल भर की भी देरी नहीं करती ,उन्हें कुछ और सोचना नहीं पड़ता ।  
आखिर इस प्यार में ऐसा क्या हैं कि महल,  मिट्टी सा लगने लगता है,  शाही रुतबा, मोहब्बत के अहसासों के सामने बौना हो जाता है । एक प्यार को पाने के लिए सारा सुख, सारा वैभव, सारी विलासिता छोड़ने की धुन कैसे सवार हो जाती है ?  प्रेमियों ने तो वक्त पड़ने पर खुद के वजूद को छोड़ दिया है । इतिहास ऐसी प्रेमकहानियों से भरा पड़ा है कि जरूरत पड़ने पर आशिकों ने प्राण तक छोड़ दिया और बदले में प्रेम को पकड़ लिया । 
जिन संतों ने प्रेम को समझा वो कहते हैं कि "ढाई आखर प्रेम का पढ़े से पंडित होय",  किसी कवि ने समझा तो लिखा "मोहब्बत अहसासों की पावन सी कहानी है, कभी कबिरा दीवाना था  तो कभी मीरा दीवानी है"  इसे किसी शायर ने समझा तो लिखा ' 'ये तो एक आग का दरिया है और डूब के जाना है'   किसी दार्शनिक ने प्रेम का समझा तो कहा कि ये तो दो जिस्मों के एक जान होने का रसायन शास्त्र है ।
वाकई प्रेम के ऐसे अनुभव को पाने के मामले में जापान की राजकुमारी माको को खुशनसीब ही माना जाएगा  क्योंकि वो सिर्फ राजसी रूतबा छोड़ रही है और बदले में वो केई के दिल की रानी बन जाएगी । भारत में ये सुख तो राधा रानी को भी नहीं मिला । कृष्ण और राधा एक होने को तरसते रह गये । लेकिन द्वारका की गद्दी को संभालने के चक्कर में कृष्ण से वृंदावन की राधा की छूट गईं । 
 सीता ने राम को पाने के लिए नंगे पैर चौदह साल का वनवास झेला , सीता और राम की जोड़ी आदर्श तो बन गई लेकिन राजमहल की मर्यादा निभाने के लिए जंगल में जाकर पुत्रों को जनम देना पड़ा । मोहब्बत में शाही रुतबा जान ले लेता है राजस्थान की हाड़ा रानी ने अपना सिर काट पर राजा को  तश्तरी में भेज दिया ताकि मोहब्बत उनकी ताकत बन जाये और वो राजधर्म का पालन कर सकें । काश! औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसा अपने प्रेमी , जो उनके पिता के सिपहसलार थे ,उस अकलाक खान के लिए महल छोड़ने का साहस जुटा पाती लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकीं और बाकी की जिंदगी अपने प्रेमी की कब्र पर लोटते हुए गुजार दी। 
तो प्यार में राजमहल की बाधा सदियों पुरानी है  जिन्होंने राजमहल का मोह पाला वो ताउम्र अकेले महल की दीवारों में सिर पीटते अपने प्रेमी की याद में घुट- घुट कर जिये । और जिन लोगों ने महल छोड़ दिया वो प्रेम को प्रमाणित कर सके । वाकई जापानी की 25 साल की राजकुमारी माको इतिहास के इन किरदारों से  बहुत ज्यादा खुशनसीब है जिन्होंने केई के प्यार के सामने राजमहल की परंपराओं को छोड़ दिया, ठुकरा दिया  । अब वो प्रेम की उस दुनिया में प्रवेश करने वाली है जिसमें वो सिर्फ दुनिया को देने की स्थिति में है । 
माको असली महारानी तो अब बनेंगी क्योंकि दुनिया प्यार की भूखी है, प्यार को तरस रही है  और माको अब इस मोहब्बत के सल्तनत की मल्लिका । 

Thursday, May 18, 2017

नये भारत के लिए नये लीडर्स की खोज शुरू, मोदी के सपनों को करेंगे साकार

 रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी, मुंबई (ठाणे) का अभिनव प्रयोग

मौजूदा दौर में जितने भी लीडर्स ने स्वयं को प्रमाणित किया है उनमें से ज्यादातर वो लोग है  जिन्होंने परिस्थितियों के अनुरूप खुद को तराशा, खुद संघर्ष किया, और खुद ही अपना लक्ष्य तय किया और फिर उस रास्ते पर बढ़ने के लिए तन, मन और धन सब कुछ झोंक दिया । लेकिन इसके बावजूद लाखों लोग ऐसे थे जिनमें प्रतिभा थी, क्षमता थी, उन्होंने अपना सर्वस्व दांव पर भी लगाया लेकिन वो ना तो खुद का भला कर सके, ना ही समाज और राष्ट्र को उनका लाभ मिल पाया । कहीं कुछ कमी रह गई और गाड़ी पटरी से उतर गई ।
वर्तमान दौर में भी अगर आप अपने चारों तरफ नजर दौड़ाएंगे तो पाएंगे कि कई लोग भाषण देने की कला में माहिर होते हैं लेकिन अध्ययन पूरा नहीं होता और वो सीमित हो कर रह जाते हैं । कई लोगों में समाज सेवा की भावना होती है, अच्छे समाजसेवी होते है लेकिन फिर भी दिशाहीन होते हैं उनका दायरा बड़ा ही नहीं हो पाता  और कई तो ऐसे होते है जिसने पास नेतृत्व की सारी खूबियां होती है लेकिन उनके पास संपर्क नहीं होता, जिसकी कमी के चलते  अवसर तैयार नहीं हो पाता और वो हताशा और कुंठा में जीने को मजबूर हो जाते हैं।
लेकिन अब ऐसा नहीं चलेगा क्योंकि भारत विश्व मंच पर हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने को छटपटा रहा है । इसके लिए उसे देश में मौजूद मानव प्रतिभा का पूरा पूरा इस्तेमाल करना चाहता है ।  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति से स्पष्ट झलकता है वो भारत को दुनिया के शीर्ष देशों की श्रेणी में देखना चाहते हैं और उसके लिए उन्हें भविष्य में ऐसे लीडर्स की जरूरत होगी जिनके पास समझ को प्रमाणित करने का आचरण हो । पूरी तरह से  शिक्षित, स्किल्ड और अनुभव से भरे लोग चाहिए जिनमें विजन को हासिल करने का विश्वास हो ।
भारत के वर्तमान और भविष्य को इस मांग को मुंबई से संचालित संस्था रामभाऊ म्हालगी ने भांप लिया है और वो जुट गई है ऐसे युवाओं की खोज कर उनका निर्माण करने में । इस दिशा में  नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में देश के मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, आरएमपी संस्थान के अभिनव पाठ्यक्रम "पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम इन लीडरशिप, पॉलिटिक्स और गवर्नेंस" को लांच करते हुए खुद को  बेहद रोमांचित महसूस कर रहे थे । उन्होंने अपने युवा दिनों को याद करते हुए कहा कि काश इस तरह शिक्षा उन्हें भी मिल पाती । जावड़ेकर ने कहा कि अब राजनीति में वो दौर आएगा जब लोग आसानी से इस पर ऊंगली नहीं उठा पाएंगे । विश्वास की राजनीति का वातावरण और मजबूत होगा ।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ डेमोक्रेटिक लीडरशिप ( आईआईडीएल ) के तले शुरू हो   रहे इस अनूठे पाठ्यक्रम को  राज्यसभा सांसद और आरएमपी के वाइस चेयरमैन विनय सहस्त्रबुद्धे ने पूरी तरह से वैज्ञानिक सम्मत बताया । उन्होंने भरोसा दिलाया कि हम ऐसे युवाओं का निर्माण करने जा रहे हैं  जिनमें राजनीति से लेकर समाज के हर क्षेत्र में काम करने की विशेष दक्षता होगी । उनका व्यापक दृष्टिकोण भारत के आनेवाले को कल को समृद्ध करेगा ।
आरएमपी के कार्यकारी निदेशक रवींद्र साठे ने बातचीत के दौरान बताया कि पिछले 35 सालों से हम नेतृत्व साधना जैसे साप्ताहिक कार्यक्रमों के जरिए प्रतिभावान युवाओं को तराशने का काम कर रहे थे और उसके नतीजे से उत्साहित होकर ही हमने नौ महीने के व्यापक पाठ्यक्रम को युवाओं को देने का संकल्प लिया है, साठे को उम्मीद है कि काबिल लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में हमारा ये पाठ्यक्रम आशा का केंद्र साबित होगा ।
कोर्स के प्रमुख देवेंद्र का दावा है कि हमने "पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम इन लीडरशिप, पॉलिटिक्स और गवर्नेंस" को इस तरह से डिजाइन किया है कि युवा को जितना पुस्तकीय ज्ञान होगा उससे ज्यादा हम उसे व्यवहारिक बनाने पर जोर देंगे ।
कार्यक्रम में मौजूद देश के पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी , बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव पी मुरलीधर राव और जेएनयू की प्रोफेसर अमिता सिंह ने भी संस्थान के इस प्रयास की सराहना कर बधाई दी ।
तो जिन युवाओं को अपने विज़न को व्यहारिकता में अपनाने की ललक है और वो इस पाठ्यक्रम को अपनाना चाहते हैं तो आईआईडील के इस बेवसाइट  - www.iidl.org.in;  आरएमपी वेबसाइट - www.rmponweb.org पर जाकर विस्तृत जानकारी ले सकते हैं ।

Monday, May 8, 2017

क्या अब गोरखपुर की पुलिस अधिकारी चारू निगम पर गाज गिरेगी?

कब तक खुलकर बोलने वालों पर बर्खास्तगी और निलंबन की तलवार लटकती रहेगी?

सवाल ये है कि इस देश में सच को कहने का मैकेनिज्म क्या है ? फिर सच को सुनने का तरीका क्या है? फिर सच से सच को समाधान में कैसे बदला जाये? जिसमें न्याय की भावना निहित हो , न्याय ऐसा हो जिसमें हर पक्ष को तृप्ति मिले । मेरी समझ से तो उसका एक ही सिद्धांत है, एक ही समाधान है और वो है हर हाल में सच को परिभाषित और प्रकाशित किया जाय ।
हाल ही की सिर्फ तीन घटनाओं से हम इस देश में सत्य और न्याय की गति, स्थिति और परिणाम को जानने की कोशिश करते हैं । हाल ही का एक  मामला है बीएसफ के तेजबहादुर का,  फेसबुक  पर खराब खाने की शिकायत  लिखी तो नौकरी चली गई । एक और मामला है छत्तीसगढ़ की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे का, फेसबुक पर आदिवासियों पर हो रहे पुलिसिया जुल्म की दास्तान लिखी और वो नौकरी से निलंबित हो गईं ।
अब तीसरा मामला है गोरखपुर की अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चारू निगम का । स्थानीय  विधायक से सरेआम बेज्जती झेलने के बाद चारू ने फेसबुक पर लिखा है कि "मेरे आँसुओं को मेरी कमज़ोरी न समझना, कठोरता से नहीं कोमलता से अश्क झलक गए. महिला अधिकारी हूँ, ये तुम्हारा गुरूर न देख पाएगा, सच्चाई में है ज़ोर इतना अपना रंग दिखलाएगा." इस मामले में स्थिति और गति के बाद परिणाम की प्रतीक्षा है ।
पुलिस अधिकारी चारू निगम और स्थानीय विधायक के बीच हुई बातचीत और गर्मा-गरमी के वीडियो से एक बात तो स्पष्ट हो गईं कि विधायक जी नेतागीरी कर रहे थे और चारू अपना काम ।  कानून व्यवस्था से बेपरवाह हो विधायकजी सिर्फ और सिर्फ अपनी तेरतर्रार छवि का पोषण कर रहे थे । सीधे- सीधे समझ में आ रहा था कि कैसे विधायक, पुलिस प्रशासन के काम में दखलंदाजी करते हैं  और इस हद तक करते हैं कि पुलिस की आंखों से आंसू निकल पड़ते हैं ।
अब समाज, राजनीति और मीडिया, पुलिस- प्रशासन के आंसुओं का हिसाब लगाने बैठती है,  आंसुओं के पीछे के सच को खोजती है तो प्रथम दृष्टया यही समझ में आता है कि लोकतंत्र में जब तक नेता तमाशा नहीं खड़ा करेगा तब तक उसकी तथाकथित हैसियत ही स्थापित नहीं होगी।
भारत जैसे  लोकतांत्रिक देश में  नेता इस बात का फायदा उठाते हैं कि भीड़ अगर आपके साथ है तो आप सीधे -सीधे चौराहे में खड़े होकर  संविधान को चुनौती दीजिए, कानून झाड़िये क्योंकि विधानसभा और संसद के सत्र तो आप लोग स्थगन की भेंट चढ़ा आते हैं ।  फिर बीच सड़क पर खड़े होकर पुलिस -प्रशासन को झुकने के लिए मजबूर कीजिए । फिर चाहे  हालात को बिगाड़िये, चाहे बनाइये,  बस कैसे भी करके सुबह के अखबार में सुर्खियां हो जाइये ।
दिलचस्प ये है कि जिस कार्यपालिका को आप जलील कर रहे हैं उसके आंसू निकाल रहे हैं दरअसल को वो व्यवस्था आप से ही निकली है लेकिन समस्या ये है कि आप विधायक बन कर खुश नहीं है आप प्रशासन भी बनना चाहते हैं । तभी तो विधायकजी  गोरखपुर में बीच-बाजार में चौधरी बन बैठे ।
लेकिन विधायक जी उस महिला पुलिस अधिकारी ने अपने आंसुओं का हिसाब मांगा है और सीधे- सीधे आपके गुरूर को ललकार है वो भी सच की दुहाई देकर । अब आपके समर्थक आपको उकसायेंगे कि साहब!  चारू निगम को संस्पेंड नहीं करवाया तो आपकी साख पर बट्टा लगना तय है  और एक व्यक्ति की व्यक्तिगत साख के चक्कर में विधायिका और कार्यपालिका दोनों की साख दिन -ब -दिन गिरती जा रही है।  यही इस देश में परंपरा सी स्थापित हो गई हैं ।
अगर हमारे पास सच को जानने, समझने का व्यवहारिक मैकेनिज्म होता तो छत्तीसगढ़ की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे को संस्पेंड करने की जरूरत नहीं पड़ती । वर्षा डोंगरे ने तो वहीं लिखा जो उन्होंने महसूस किया। उनके मुताबिक उन्होंने आदिवासियों के साथ पुलिस की अमानवीयत को खोलकर रख दिया । अगर वो सच कह रही है तो उसके मूल में जाने की जरूरत थी लेकिन सिस्टम का सारा फोकस समाधान से ज्यादा पुलिस की साख बचाने का का था ।  क्या वर्षा के सस्पेंशन से समस्या खत्म हो गईं ?
ठीक इसी तरह सीमा सुरक्षा बल के जवान तेजबहादुर की शिकायत में हमने शायद समाधान नहीं खोजा बल्कि सारा ध्यान सीमा सुरक्षा बल की साख को बचाने में लगा दिया । समाधान में गये होते तो तेजबहादुर की नौकरी शायद नहीं जाती ।
लेकिन सवाल ये है कि हम कब तक फेसबुक पर बोलते चारू, वर्षा और तेजबहादुर जैसे लोगों को संस्पेंड और बर्खास्तगी के दायरे में लाते रहेंगे ? अगर किसी दिन ये आंदोलन बन गया तो ..। अब भी वक्त है संभल जाइये फेसबुक पर उठती इन आवाजों को नज़रअंदाज मत करिए, इनकी बातों को समझिए औऱ इनका समाधान प्रस्तुत करिए वर्ना किसी दिन आप इस भीड़तंत्र में अपनी ही पैदा की हुई अराजकता का शिकार बन सकते हैं ।
http://tz.ucweb.com/5_Dq2B - (यूसी में प्रकाशित लिंक )

Sunday, May 7, 2017

केजरीवाल एक आंदोलन के कातिल साबित होकर ना रह जाएं!



मुझे लगता है भारत के राजनीतिक इतिहास में केजरीवाल एक ऐसा नाम होंगे जिसमें ना तो उनके शौर्य का वर्णन होगा, ना उनकी असफलता का  बल्कि उन्हें जाना जाएगा सत्ता हासिल करने के लिए अपनाये उनके मैकेनिज्म के लिए । लोकतंत्र पर  शोध करनेवालों के लिए दिल्ली की केजरीवाल सरकार से वो सूत्र निकलते हैं जिससे सत्ता हथियाने के सारे शॉर्टकट मौजूद  हैं ।

अन्ना और केजरीवाल के आंदोलन से एक बात तो साफ हो गई थी इस देश के लोग राजनीति में ईमानदारी चाहते थे  । प्रशासन में पारदर्शिता चाहते थे ।  जिस आदर्श को अब तक लोगों ने किस्से कहानियों में पढ़ा था उस आदर्श को सच में बदलते हुए देखने का लोगों में जुनून पैदा हो गया था ।

अन्ना और केजरीवाल  आंदोलन से एक बात और साफ हो गई थी कि भारत की राजनीति में शुचिता स्कोप अभी बाकी था । बिना धन बल के, बिना बाहुबल के भी आप सरकार बना सकते हैं ।  बस एक बार लोगों को आपने यकीन दिला दिया कि आप सच्चे हो, और इस सच्चाई को आपने स्वयं के साथ प्रमाणित कर दिया तो  लोगों को तख्ता पलटते देर नहीं लगेगी । लोकतंत्र की ताकत का प्रतीक बन कर उभरी थी अरविंद केजरीवाल की सरकार ।

आज केजरीवाल की सरकार लोकपाल की बात भी नहीं करती,  लेकिन जनता के दिल में जगह लोकपाल ने ही बनाई थी । लोग  लोकपाल की टोपी पहन कर सड़क पर उतरे थे  । बच्चे, बूढ़े, जवान, नवयुवतियां, घरेलू और कामकाजी महिलाए,  पहली बार दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर का आदमी, नौकरीपेशा लोग, ऑटो रिक्शा, रेहड़ी चलाने वाले लोग , जाति-पाति को पीछे छोड़ कर उतर गये थे सड़क पर । मानो शुचिता की बारात सजी हो ।  ऐसा लगा कि स्थापित राजनीतिक दलों की सोशल इंजीनियरिंग वाली राजनीति का युग पीछे छूट जाएगा ।

क्या आंदोलन था, अन्ना गांधी जैसे लगने लगे थे, केजरीवाल नेहरू जैसे । आजादी के बाद गांधी कांग्रेस का पैकअप चाहते थे क्योंकि आजादी मकसद पूरा हो गया था । लेकिन नेहरूजी और उनके साथियों ने ऐसा होने नहीं दिया ।  उसी तरह अन्ना देश में शुचिता के आने तक आंदोलन की राजनीति को आगे रखना चाहते थे लेकिन केजरीवाल और उनके समर्थकों ने ऐसा होने नहीं दिया ।

आंदोलन का लोहा गर्म था केजरीवाल ने मार दिया हथौड़ा । लोकपाल को पीछे छोड़ा और एक सत्याग्रही से रातोंरात सरकार बन बन बैठे । अब तक हमने देखा था कि कैसे भोगवादी दुनिया में , बाजारवादी दुनिया  में सपने बेचें जाते है लेकिन पहली बार लोकतंत्र में ईमानदारी, शुचिता, पारदर्शिता और लोकपाल का सपना  दिखाया गया और सपने का विज्ञापन  सुपरहिट साबित हुआ ।

" ना पैसा लगा ना कौड़ी,  केजरीवाल और उनके साथी चढ़ गये सत्ता की घोड़ी "

लेकिन दो साल में वो सब हो गया जिसके लिए राजनीति जानी जाती है । कलंक भी लगा । कद भी घटा । विश्वसनीयता चली गई । अपने पराये हो गये । पद, प्रतिष्ठा और अहंकार बड़े हो गये जिसने भी टांग अड़ाने की कोशिश की उसे ही रास्ते से उड़ा दिया गया ये भी नहीं देखा कि कभी ये आपके सपनों का हिस्सा था । सपनों के प्लानर थे । सपने को सच करने के मैकेनिज्म में आपके भागीदार थे ।

भागीदार बिखरने लगे तो वो बिलबिलाने लगे । वो बिलबिलाने लगे तो "आप"की पोल खुलने लगी । पोल खुलने लगी तो "आप"की साख पे पलीता लगने लगा । पलीता लगने लगा तो पब्लिक को आप से ज्यादा खुद पर  गुस्सा आने लगा । गुस्सा आया तो दिल्ली के एमसीडी के नतीजे आये और आपको "आप"की हैसियत बता दी ।

लोगों समझ गये कि सादगी से भरा आपका पहनावा, शालीनता से भरा आपका आचरण, पारदर्शिता की ताल ठोंकनेवाली आपकी बातें सब एक टूल थे , वो सब एक दिखावा था। लोग अब कहने लगे है कि सच्चाई का, ईमानदारी का, शुचिता का मायाजाल बुना गया था  सिर्फ मतदाताओं को झांसा देने के लिए  ।

अगर आपका लक्ष्य नेक होता,  एक होता तो साथियों में मतभेद की कोई गुंजाइश ही नहीं थी । अगर जनता की भलाई ही सर्वोपरि होती तो सुप्रीमो बनने का गुरूर परिलक्षित ही नहीं होता ।

केजरीवाल सरकार के दो साल हो गये और दो साल में आप वो छाप नहीं छोड़ सके जो अन्ना के साथ रहकर आपने स्थापित किया था । जी- जान से काम करने की बजाय आप कमियां गिनाते रह गये । आप सिर्फ शिकायत खोजने में लगे रहे ।  उंगलिया उठाते रह गये । सारी उर्जा आपने दिल्ली की जनता की भलाई के बजाय अपने राजनीति कद को बड़ा बनाने में लगा दिया वो भी सामनेवाले को नीचा दिखाकर । कभी ममता के साथ, तो कभी लालू के साथ ,  कभी पंजाब का चक्कर और कभी गोवा की सैर ।

 ना खुदा मिला ना बिसाले सनम । लगता है अब "आप" हो गये खतम

ठीक है आपने जो किया सो किया अपने राजनीतिक संस्कारों के हिसाब से किया । लेकिन इतना जरूर बता दिया कि देश में ईमानदारी का स्कोप अभी बाकी है । लोग राजनीति में शुचिता चाहते हैं । लोग सत्य, प्रेम और न्याय को प्रमाणित होते देखना चाहते हैं ।

"आप"ने भले ही उस जनआंदोलन का गला घोंट दिया हो, उस परिवर्तन की आंधी का कत्ल कर दिया हो  लेकिन उम्मीद अभी बाकी है क्योंकि  भारत की जनता को अभी भी उसका इंतजार है जिसकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं होगा और वो भारत के  लोकतंत्र में एक दिन लोकपाल को साकार जरूर करेगा ।



Friday, May 5, 2017

एंटी -रोमियो अभियान में लगे पुलिस की हकीकत को तो जान लीजिए योगीजी!

एक कांस्टेबल की जबानी यूपी पुलिस की कहानी                                                                                                                                                                        

उत्तर प्रदेश में योगी राज है, माहौल ऐसा बन गया है जैसे कानून का राज लौट आया हो,  यूपी में अब चोरी, लूटपाट छेड़खानी जैसी घटनाएं बंद हो जाएंगी । इस सिलसिले में मेरी यूपी पुलिस के एक अधिकारी से बात हुई तो उन्होंने बिना किसी लाग -लपेट के साफ- साफ कह दिया चाहे कोई आ जाए जैसा चलता आया था वैसा ही चलता रहेगा ।

उस पुलिस अधिकारी ने साफ -साफ कहा कि किसी सरकार में इतनी हैसियत नहीं कि अव्यवस्था के इस गठजोड़ का खात्मा कर दे । अधिकतम अपराध नेता और पुलिस की सहमति से ही होते रहे हैं ।  हां! अगर सरकार चाहती है तो अधिकतम 8 से 10 प्रतिशत मामला सुधरा हुआ बाहर से लगेगा  लेकिन भीतर से जैसा था वैसा ही रहेगा ।

यूपी में क्यों नहीं सुधर सकता सिस्टम इस उत्सुकता में मेरी मुलाकात हाल ही में वहां के एक ऐसे कांस्टेबल से हुई जिसने पुलिस के आला -अधिकारियों की नाक में दम कर रखा हैं । उस शख्स की बातें सुनी तो लगा जैसे हाथी के नाक के चींटी घुस गई हो । उस शख्स से हुई पहली बातचीत का ब्यौरा मैं आपके सामने रख रहा हूं जिसे सुनकर आप भी कहेंगे ये कांस्टेबल तो किसी भी दिन मारा जाएगा । 

कांस्टेबल का नाम है सुशील कौशिक । इस वक्त ये कांस्टेबल क्षेत्राधिकारी औद्योगिक नोएडा में पदस्थ है । इसकी शिक्षा एमए और एलएलएम है । कौशिक की कहानी करवट लेती है 2005 से जब ये नोएडा 49 थाने में पदस्थ था । कौशिक ने देखा कि कैसे वहां के  पुलिसवाले बांग्लादेशी मजदूरों के उठा लाते हैं और उन्हें तब तक परेशान करते हैं जब तक इन्हें लानेवाला ठेकेदार पुलिस को एक निश्चित रकम नहीं दे देता । 

इस कांस्टेबल ने वहां चल रहे कबाड़ी और खाकी के गठजोड़ को भी उजागर किया । जिसमें कबाड़ी निर्माणाधीण बिल्डिंगों के बिल्डिंग मटेरियल को चुराते थे और उसमें पुलिस को एक निश्चत हिस्सा मिलता था । जब कौशिक ने इसके लिए  जिम्मेदार अधिकारियों की नामजद शिकायत दर्ज करवाई तो बजाय आरोपियों की जांच होने के कौशिक का ही ट्रांसफर नोएडा से सीधे झांसी कर दिया गया ।  

साल 2005 -06 में झांसी में रहते हुए सुशील कौशिक ने पाया कि कैसे चुनाव ड्यूटी में लगे पुलिस कर्मचारियों का पैसा आला अधिकारी डकार रहे हैं । इस बार कौशिक ने पूरी जानकारी आरटीआई से हासिल की और बाकायदा यूपी होम सेक्रेटरी और डीजीपी से की । धारा 156-3 के तहत मामले को लेकर कोर्ट में भी गये । आईजी को इस मामले में जांच करनी पड़ी और मामला आज भी एंटी करप्शन कोर्ट में चल रहा है । लेकिन कांस्टेबल कौशिक को झांसी के रीलीव करके बुलंदशहर भेज दिया गया ।

साल 2007 में कौशिक ने   बुलंदशहर में फिर आरटीआई लगाई कि कैसे चुनाव में लगे पुलिसवालों का पैसा अधिकारी डकार रहे हैं । मामले की जांच शुरु हुई लेकिन गाज गिरी कांस्टेबल पर । कौशिक का तबादला बुलंदशहर से बागपत हो गया । बागपत में कौशिक ने कुछ ऐसा किया कि पूरी यूपी पुलिस हिल गई । 

कौशिक ने देखा पुलिस कर्मचारियों के वेतन से बिना उनकी स्वीकृति के 50 रुपये कटता था और उसका इस्तेमाल होता था एसएसपी आवास में लगे जनरेटरों में तेल डालने के लिए । यहां उन्होंने पाया कि सालों से एक परंपरा बन गई थी कि पुलिस कर्मचारियों की सैलेरी से बिना उनकी स्वीकृति के पुलिस कल्याण, डिसट्रिक्ट एमीनिटी फंड, शिक्षा, खेलकूद और मनोरंजन के नाम पर 30 रुपये काट लिया जाता था । 

जब कौशिक ने इस बात पर आपत्ति की तो उनको लाइन हाजिर कर दिया गया  और अधिकारी ने उनकी गोपनीय रिपोर्ट तैयार कर उन्हें बागपत से फैजाबाद ट्रांसफर कर दिया । इस मामले को लेकर कांस्टेबल ने जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो राज्य के 5 आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज हो गया । 

ये कांस्टेबल जहां जाता वहीं के अधिकारियों की कलई खोलने में लग जाता था । साल 2010 में इसने फैजाबाद के एसपी के खिलाफ जब मोर्चा खोला तो हमेशा की तरह इनका ट्रांसफर फैजाबाद से नोएडा कर दिया गया । नोएडा आकर कांस्टेबल ने देखा कि मामूली सैलरी पाने वाले पुलिसवालों ने करोड़ों रुपये की बेनामी संपत्ति बना रखी है। कौशिक ने इसे उजागर करने के लिए आरटीआई लगा रखी है और जवाब का इंतजार कर रहे हैं ।

कांस्टेबल कौशिक ने अपने स्तर पर भी ,अपना पैसा खर्च करके उन पुलिसवालों की संपत्ति का ब्यौरा इकहट्टा कर रहे हैं जिनकी करोड़ों रुपयों की बेनामी संपत्ति है  और उन्हें इंतजार है अगले ट्रांसफर का । 

योगीराज में कौशिक का अगला ट्रांसफर ये तय करेगा कि प्रदेश में क्या में राज बदला है या फिर व्यवस्था भी बदली है ? योगी उस पुलिस से भ्रष्ट्राचार को साधने में ताकत लगा रहे है जो खुद उसका हिस्सा मालूम पड़ रहा है । कांस्टेबल कौशिक ने पुलिस के भीतर के कई ऐसे भन्नादेने वाले खुलासे किये जिसके सामने  पेशेवर अपराधी शरीफ लगता है । कांस्टेबल का कहना है कि जिस पुलिस के दम पर योगीजी एंटी रोमियो अभियान चला रहे हैं पहले उन पुलिसवालों की हकीकत तो पता कर लेते ।    

कुल जमा कहानी इतनी ही मालूम पड़ती है कि सरकारें आएंगी जाएंगी लेकिन अव्यवस्था का गठजोड़ अपने पूरी गुंजाइश के साथ फलता- फूलता रहेगा और सुशील कौशिक जैसे कांस्टेबलों का ट्रांसफर होता रहेगा ।     

 ( ये लेख कांस्टेबल सुशील कौशिक से बातचीत के आधार पर लिखा गया है )  

Thursday, May 4, 2017

भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिंग की धरती के खत्म होने की चेतावनी को गंभीरता से लें

धरती बचाने के लिए मानव जाति को मानव का आविष्कार करना होगा 

धरती को बचाने की एकमात्र उम्मीद है भारत का मानव व्यवहार दर्शन और विज्ञान 


मानव जाति अगर मानव को खोज ले तो दूसरी धऱती खोजने की जरूर ही नहीं पड़ेगी। अगर मानव अपने मौलिक आचरण के साथ मिल गया तो सारी समस्याओं का समाधान मिल जाएगा। सारे सुखों की खोज हो जाएगी। लेकिन उसके लिए दुनिया के तमाम विद्वानों को अपने अहंकार को किनारे रखकर भारत की परंपराओं में शोध करना होगा।
जिस दिन ताकतवर देशों का अहंकार टूटेगा उस दिन ये धरती स्वर्ग हो जाएगी। मानव देवता हो जाएगा और पूरा विश्व परिवार हो जाएगा। भारत की परंपरा हजारों सालों से वसुधैव कुटुंबकम की ओर इशारा कर रही है लेकिन दुर्भाग्य कि विज्ञान अपने अधूरेपन से उबर ही नहीं पा रहा है।
भारत का वैदिक दर्शन, भारत का परंपरागत ज्ञान और विज्ञान आज इसलिए प्रासंगिक हो गया है क्योंकि दुनिया के महान भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिंग ने पूरी मानवजाति को आगाह करते हुए कहा कि खुद को बचाए रखने के लिए सभी मानव 100 साल के भीतर पृथ्वी को छोड़कर अन्य किसी ग्रह पर चले जाएं। उन्होंने ये बात जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी और उल्का पिडों के टकराव से पैदा होने वाले हालात से बचने के लिए कही है।
हॉकिंग की इस बात से ये स्पष्ट हो गया कि जो विज्ञान मानव को सुख नहीं दे सकता, जिस विज्ञान में जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी और उल्का पिंडों के टकराव को रोकने की हैसियत ही नहीं हैं उसे कम के कम अब ये स्वीकार कर लेना चाहिए कि प्रकृति को, अस्तित्व को जानने की उसकी समझ ही विकसित नहीं हो सकी है।
बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री ‘एक्पेडिशन न्यू अर्थ’ में स्टीफन हॉकिंग और उनके स्टूडेंट क्रिस्टोफ गलफर्ड बाहरी दुनिया में मानव जाति के लिए जीवन की तलाश करते नजर आएंगे। पिछले महीने भी हॉकिंग ने चेताया था कि तकनीकी विकास के साथ मिलकर मानव की आक्रामकता ज्यादा खतरनाक हो गई है। यही प्रवृति परमाणु या जैविक युद्ध के जरिए हम सबका विनाश कर सकती है। एक वैश्विक सरकार ही हमें इससे बचा सकती है। मानव बतौर प्रजाति जीवित रहने की योग्यता खो सकता है।
हॉकिंग की सोच अभी वैश्विक सरकार तक ही पहुंची है लेकिन भारत की परंपरा हजारों सालों से वैश्विक परिवार को ओर इशाऱा कर रही है। भारत का मानव व्यवहार दर्शन कहता है कि जब तक मानव खुद का अध्ययन नहीं करेगा, खुद को नहीं जानेगा वो दुनिया के किसी भी ज्ञान को पूर्णता के साथ ग्रहण ही नहीं कर सकता है।
इशोपनिषद कहता है कि मानव इस धरती पर सबसे पूर्ण और महत्वपूर्ण इकाई है और इस पूर्णता को समझकर, पूर्णता में शामिल हुए बिना उसकी ये यात्रा पूरी नहीं हो सकती।
“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥”
इस दर्शन को विज्ञान की दृष्टि से जानने की जरूरत है।
भारत का दर्शन कहता है मानव शरीर को अपनी जरूरतों के लिए बहुत ज्यादा सुविधा और साधनों की जरूरत नहीं है, लेकिन भौतिक विज्ञान ने पूरी ताकत सुविधा और साधनों को जुटाने में लगा दी, विज्ञान ने अपनी सबसे बड़ी ताकत  बाजारवाद में झोंक रखी है और इस लक्ष्यविहीन और दिशाविहीन प्रगति ने हमें ग्लोबल वार्मिंग की ओर धकेल दिया।
जो यूरेनियम धरती में हजारों फुट गहरे दबा था, जिसकी रेडियो एक्टिवता का असर ये है कि मानव जाति की नस्ल ही खत्म हो जाये, उसे दुनिया के तथाकथित समृद्ध और ताकतवर देशों ने परमाणु बम के तौर पर सजा रखा है। लेकिन उन देशों की इतनी हैसियत नहीं कि वो उसका इस्तेमाल कर सकें, क्योंकि उन्हें पता है जो करेगा वो मरेगा।
खुद पर इतराने वाला भौतिक विज्ञान अब मान रहा है कि धरती खतरे में है, मानव जाति खतरे में हैं। लेकिन भारत का दर्शन कहता है कि ना ये धरती खत्‍म होगी, ना अस्तित्व खत्म होगा। जिस अस्तित्व ने इसे बनाया है, उसे इस अस्तित्व को संभालने का हुनर भी आता है।
लेकिन ये अस्तित्व अपने तरीके से इस धरती को बचाये, इससे अच्छा होगा कि उससे पहले मानव अपनी भूमिका जान ले, समझ ले और सुधर जाये। विज्ञान को प्रकृति के अध्ययन में इस्तेमाल करे ना कि उसके विनाश में। हॉकिंग की चेतावनी को हल्के में लेने की गलती ना करें।
इस लेख को मध्यमत ने भी प्रकाशित किया - (http://www.madhyamat.com/we-have-to-reinvent-the-humanbeing-to-save-earth/)