Thursday, June 20, 2019
Wednesday, June 19, 2019
Tuesday, June 18, 2019
Thursday, June 13, 2019
बजट में हर भारतीय की भागीदारी और सम्मान सुनिश्चित हो
अपनी बातों को रखने से पहले मैं ये स्पष्ट कर देना
चाहता हूं कि मैं कोई अर्थशास्त्र का विद्वान नहीं हूं, हां अनुभव और व्यवहारिक
ज्ञान से जो मेरे संज्ञान में आया उससे सरकार और वित्त मंत्री को अवगत कराना मेरा
कर्तव्य है और अपेक्षा भी।
1- टैक्स जुटाने के नये स्रोत – इस देश में अभी भी बहुत सारे ऐसे क्षेत्र है जिनसे
टैक्स वसूलने के सरकार के पास कोई कारगर और वैज्ञानिक तरीके नहीं है। जैसे कि
प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर । भारत के गांव से लेकर महानगरों तक प्राइवेट
प्रैक्टिस करनेवाले डॉक्टर पूरा लेने-देने
कैश में करते हैं। इसी तरह सिविल इंजीनियरिंग से लेकर इंटीरियर डिजाइनिंग का काम
करने वाले लोग है। बहुत सारे हाई प्रोफाइल कारीगर है, हाईप्रोफाइल मैकेनिक हैं, बड़े बड़े ठेकदार हैं,
मटेरियल सप्लायर है, कोचिंग सेंटर और ट्यूशन पढ़ाने वाले टीचर और प्रोफेसर हैं।
बहुत सारे वकील और सीए ऐसे हैं जो मोटी रकम अपने क्लाइंट से वसूलते हैं लेकिन
टैक्स के नाम पर सरकार को उसका हिस्सा नहीं मिलता। इसके अलावा ऐसे कई प्रोफेशन है
जिसमें व्यक्तिगत तौर कमाई मोटी है लेकिन उनसे टैक्स वसूलने का ऐसा कोई मैकेनिज्म
कभी फक्शन में आया नहीं। सरकार को ऐसे क्षेत्रों की पहचान कर उन्हें टैक्स के
दायरे में लाने के मैकेनिज्म के बारे में जरूर कदम उठाना चाहिए।
2- राष्ट्र का तन और मन बेहतर होगा तो धन आएगा ही - स्वास्थ्य और शिक्षा के
क्षेत्र में अभी भी सरकार को बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है ताकि किसी भी
भारतीय को इस मामले में भेदभाव का सामना ना करना पड़े। इसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार
लें। इस क्षेत्र में बजट आवंटन के साथ-साथ उसका सही उपयोग हो इसके बारे में भी वित्त
मंत्रालय कोई प्रणाली विकसित करें ।
3- भारत की नये सिरे से दुनिया में न्याय पूर्ण ब्रांडिंग हो – पिछले 70 साल से
दुनिया भर में हमारी ब्रांडिंग ताजमहल और लालकिले तक ही सीमित है। सपेरो और
मदारियों वाली छवि साजिश के तरह भारत की बनाई गई है तो क्यों ना हम भारत की प्राचीन
स्थापत्य कला, वैभव शाली मूर्तिकला, अद्भुत कर देने वाली वास्तुकला, बेजोड़ चित्रकला,
शानदार बुनकर, वस्त्रकला, अस्त्र-शस्त्र विद्या जैसे तमाम ज्ञान को उभारें। इस
क्षेत्र में शिक्षा का भी अवसर है, रोजगार का भी अवसर है और सबसे ज्यादा
पर्यटन उद्योग का और कमाई का। सरकार को इस दिशा कुछ क्रांतिकारी करना चाहिए
क्योंकि भारत में प्राचीन वैभव और ज्ञान बिखरा पड़ा है और हम सपेरों और मदारियों
की छवि को ढोने को मजबूर हैं। उस पर दुर्भाग्य ये हैं कि भारतीय ही भारतीय वैभव से अनजान है। जैसे की हम्पी,
तमिलनाडु के विशाल मंदिर, दुनिया को बताने की जरूरत है संसद भवन का नक्शा भी मुरैना
के योगिनी मंदिर से प्रेरित मालूम पड़ता हैं।
4 - वैदिक
विश्वविद्यालय और शोध संस्थान – अपेक्षा है, आशा है और प्रार्थना है कि भारत के
वैदिक ज्ञान को एक विश्वविद्यालय का रुप देकर उसे बचाया जाय, संऱक्षित, संवर्धित हो
और शोध को बढ़ावा मिले । उसमें वेद हो, आयुर्वेद हो, योग हो, मानवता हो, प्राचीन
वैदिक स्थापत्य, मूर्तिकला, प्राचीन टैक्सटाइल, तमाम प्राचीन भारतीय ज्ञान पर नये सिरे से वैज्ञानिक तर्कों के साथ शोध हो। इस क्षेत्र में
रोजगार, व्यापार के नये अवसर तलाशे जाये।
5 - टैक्स पेयर का सम्मान हो – सबसे बड़ी और सबसे अहम बात ये है जिसके पैसों से
सरकार चल रही है उस आदमी को, उसके योगदान को कहीं ना, कहीं किसी ना किसी तरह सम्मान
सुनिश्चित किया जाये। उसके धन के बदले उसे कम से कम अपमान ना मिले इसकी गारंटी लें
सरकार। टैक्स पेयर के अंदर स्वामित्व का
भाव विकसित हो और तमाम नेताओं औऱ सरकारी कर्मचारियों को ये पता हो कि देश
टैक्सपेयर के पैसे से चल रहा है और हम सब उनके प्रति कृतज्ञ हैं। इससे टैक्सपेयर
का हौंसला बढेगा और लोगों आगे आकर टैक्स देंगे और कहेंगे -
“ नाचीज के हौसले में जितना इजाफा होगा-जमाने में शोहरत और सुकून का उतना ही इजाफा होगा”
“ नाचीज के हौसले में जितना इजाफा होगा-जमाने में शोहरत और सुकून का उतना ही इजाफा होगा”
Saturday, June 8, 2019
Thursday, June 6, 2019
बंगाल के रोम-रोम में राम हैं
राम को मिटाने में कहीं ममता ना मिट जायें
“भारतीयों के लिए राम-लक्ष्मण और सीता जितने सत्य है
उतने उनके घर के लोग नहीं, परिपूर्णता के प्रति भारत वर्ष के लिए प्राणों की आकांक्षा
हैं राम” – गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर
“हरे
राम-हरे कृष्ण ये नाम तो सब पापों का नाश करता है ये नाम प्रेम का कारण है और
भक्ति को प्रकाशित करता है”–चैतन्य महाप्रभु
टैगोर
की कविता पर राम की कृपा रही है तो चैतन्य महाप्रभु की चेतना के मूल में भी राम ही मिलते हैं। ईश्वरचंद्र
विद्यासागर के ज्ञान का आधार भी राम है और रामकृष्ण परमहंस के नाम में ही राम है। उन्नीसवीं
सदी में हिंदुत्व का जागरण करने वाले विवेकानंद का एक किस्सा मशहूर है कि जब वो तार
घाट स्टेशन पर भूखे-प्यासे बैठे थे तब एक अजनबी उनके पास खाना लेकर आया और बोला कि
भगवान राम ने स्वप्न में आकर उन्हें भोजन करवाने का आदेश दिया है। जाहिर है बंगाल
के साहित्य में, संस्कृति में, सभ्यता में, सुधारवादी आंदोलन में, धर्म और भक्ति में,
संस्कार और रक्त में सर्वत्र राम ही स्रोत हैं।
राम की चेतना से भरी
ऐसी बंगाल की धरती में ये दृश्य कितना अजीब है कि जयश्रीराम सुनते ही वहां की महिला
मुख्यमंत्री अपना आपा खो बैठती हैं। गाड़ी से उतर कर बीच सड़क में चीखने-चिल्लाने
लगती हैं। अपनी सियासत को बचाने के लिए राम को मिटाने पर वो किस कदर आमादा है उसकी
एक छोटी सी मिसाल ये है कि सरकार ने स्कूल की किताबों में बंगाली शब्द 'रामधनु', जिसका अर्थ इंद्रधनुष है, को बदल दिया है। राम
शब्द से छुटकारा पाने के लिए तीसरी क्लास की किताबों में पर्यावरण के पाठ में 'रामधनु' शब्द को बदलकर 'रोंगधोनु' कर दिया गया है।
सियासत
के लिए राम को मिटाने की ये मुहिम क्या इतनी आसान है क्या अब बंगाल में रामकृष्ण परमहंस
का नाम बदल जायेगा? क्या राम के उदाहरणों से भरे ईश्वरचंद्र विद्यासागर के भाषण जला दिये जाएंगे? बंगाल की राम भक्ति और राम शक्ति की चेतना,
चैतन्य महाप्रभु को विस्मृत कर दिया जाएगा? चलो एक बार मान लिया कि अपनी बौखलाहट में आपने गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर के साहित्य पर भी
प्रतिबंध लगा दिया लेकिन बंगाल का रक्त और वहां की आत्मा को कैसे बदलेंगीं? टैगोर ने शायद इसीलिए कहा था कवि का मस्तिष्क ही राम का जन्मस्थान है जो अयोध्या
से कहीं ज्यादा वास्तविक है।
राष्ट्रपति महात्मा गांधी की समाधि पर हे राम! लिखा है क्या बंगाल के लोग ममता बनर्जी को
इतना बड़ा जनादेश देने वाले है कि वो समाधि से भी राम को मिटा दे? भारत की तरह बंगाल में भी मूल्य का
विनियम गांधी की तस्वीर वाले नोट से ही होता औऱ उसी गांधी ने कहा है कि “मेरे द्वारा जो कुछ समाज की सेवा हो सकी
वह राम नाम की देन है। मेरे पास राम नाम के सिवा कोई शक्ति नहीं है, वही मेरा
एकमात्र सहारा है”
बंगाल के भूगोल में भी
राम हैं हिमालय से निकल कर बंगाल की खाड़ी में समाहित होने वाली गंगा को इस धरती
पर राम के पूर्वजों ने ही उतारा था। तो क्या ममता दीदी गंगा की धारा को भी मोड़
देंगी । जिस लोकतंत्र ने आप जैसी साधारण महिला को मुख्यमंत्री
बनाया वो राम के लोकतांत्रिक मूल्यों के कारण ही है। लोकतंत्र की जीवंत बनाने के
लिए इस देश में राम से बड़ी कुरबानी किसी ने नहीं दी। जब तक भारत में राम है तब तक
लोकतंत्र है अब आप सत्ता के अहंकार में उसी राम को और उसी लोकतंत्र को कुचलने
निकली है लेकिन ये हो ना पाएगा क्योंकि आपने राम को नहीं जाना। अरे आप गुरूदेव रवींद्रनाथ
टैगोर को ही अच्छे से पढ़ लेतीं तो जान लेतीं की राम हैं क्या। टैगोर ने कहा है कि
रामायण हमारे सामाजिक जीवन का महाकाव्य है।
ममता दीदी प्रार्थना है
भारत के जिस इतिहास को आपने पढ़ा है उसका मनन कीजिए, आपको पता चलेगा कि इस देश में
दुराचारियों ने अपना प्रभाव जमाया जरूर है
लेकिन लेकिन जब जब राम नाम का संकल्प लेकर भारत के लोग खड़े हुए उनका नामोनिशान
मिट गया। रावण से लेकर कंस तक, कौरवों से लेकर घनानंद तक। मुगलों लेकर अंग्रेजों
तक सबने राम को मिटाने की कोशिश की और खुद मिट गये क्योंकि राम भारत के पंचतत्वों
में है क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा में राम की ही गूंज है। राम की महिमा का समझिए ममता दीदी, जम कर राजनीति
करिए लेकिन राम को पकड़ कर चलिए। राम को नकारने वाले वामपंथियों के पतन का उदाहरण
आपके सामने है, लोकसभा 2019 की झांकी आपने देख ली है, अभी भी वक्त है संभल जाइये राम
को मिटाने कोशिश मत करिए।
Tuesday, June 4, 2019
सियासत के लिए मत करो भाषा का अपमान
ज्ञान की कांति और विकास की क्रांति का आधार है हमारी
भाषाएं
भाषा अभिव्यक्ति का जीवंत माध्यम है व्यक्ति भाषा के माध्यम
से बड़ी सरलता से व्यक्त होता है जो व्यक्त नहीं हो पाता उसकी बेचैनी, उसकी पीड़ा
और उसकी व्यथा अंधेरे काल कोठरी में कैद मानव से भी ज्यादा कष्टप्रद है। कल्पना
कीजिए भाषा ना होती तो क्या होता? कुछ ना होता, ना ज्ञान, ना विज्ञान, और मानवता। बिना
भाषा के मानव पशुवत होता।
धन्यवाद दीजिए उन ऋषियों का, मनीषियों का और
विद्वानों का जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अपने क्षेत्र में अपनी अपनी भाषा को
संजोया, सहेजा, संकलित किया फिर उसे वैज्ञानिक और तर्कसम्मत बनाया। अपने ज्ञान के श्रम
से उसे व्याकरण में ढाला। उसे ग्रंथों में, किताबों में, उतारने के लिए लिपियों का
सृजन किया। ना जाने कितने युग और कितनी पीढ़ियां खप गई होंगी एक भाषा को बनाने में।
तब कही जाकर व्यक्ति ने स्वयं को दूसरे व्यक्ति के सामने व्यक्त किया होगा । व्यक्ति
से परिवार, फिर समाज और फिर राष्ट्र की कल्पना साकार हुई होगी। ये भाषा ही मानव और
मानवता के उत्थान का भाषण है।
अब आईये भारत की बात करते है। जितने राज्य उतनी भाषा
और इसमें समाहित और प्रस्फुटित ना जाने कितनी बोलियां। कैसे लोग रहे होंगे वो कर्नाटक वाले कि
उन्होंने कन्नड़ बनाया, कैसी मिट्टी रही होगी कि पास के ही तमिलनाडु में तमिल भाषा
ने जन्म लिया इन दोनों के बीच में क्या हवा चली होगी कि तेलगू भाषा ने आकार लिया,
गाड़ी से आधे दिन का सफर भी पूरा नहीं होगा कि आप खुद को मलयाली भाषा के लोगों के
बीच पायेंगे, गुजराती, मराठी, पंजाबी, असमिया, सिंधी, उड़िया जैसे दर्जनों भाषाएं,
सैकड़ों बोलियां एक ही भू-भाग में पुष्पित और पल्लवित हुईं। ये भाषाएं प्रमाण है हमारे
महान पूर्वजों के ज्ञान की। उनकी मेधा और प्रतिभा युगों-युगों से आप को ये अहसास
करा रही है कि आप असाधारण लोग है। ज्ञान की कांती और परिवर्तन की क्रांति को हमारे
पूर्वजों ने अपनी भाषायी विविधता से ही परिभाषित कर दिया है।
हर क्षेत्र की भाषा वहां का संस्कार है संस्कार वो
जिससे मानव और मानवता दोनों सुखी होते है । और जब सुख की कल्पना होती है तो अहंकार,
लोभ और क्रोध पर विजय होती है। ऐसे में ही एक भाषा दूसरी भाषा से जुड़ती है, मिलती
है सीखती है समझती है और संस्कारों का, ज्ञान का आदान-प्रदान करती हैं। यहीं इस
देश में भाषा की परिपाटी रही है। तभी तो केरल में पैदा हुआ शंकर मध्यप्रदेश में
नर्मदा तट पर ज्ञान प्राप्त कर शंकराचार्य बनता और काशी में गंगा के तट पर मंडनमिश्र से शास्त्रार्थ करता है।
भारतीय भूभाग के चारों दिशाओं में चार धाम और चार ज्ञान मठों की स्थापना कर
शंकराचार्य ने भारत को सांस्कृतिक,
धार्मिक और साहित्यिक तौर पर एक कर दिया। शंकर विरचित जो देव स्त्रोत मल्लिकार्जुन में गाये जाते है उन्हीं स्त्रोतों से काशी में विश्वनाथजी की
वंदना होती है। रामेश्वरम में बाबा को प्रसन्न करने तमिल लोग गंगाजल लेने त्रिवेणी
संगम तक आते है। ऐसे में भारत अलग कैसे हो सकता है। जाहिर है भाषा हमारी समृद्धि
का प्रतीक है जो हमारी एक संस्कृति को व्यक्त करती है। युगों-युगों से हम ऐसे ही
एक दूसरे को सीखते-सिखाते रहे हैं और आपस में बंधु-बांधव बन कर रहे हैं।
आज भी भारतीय करेंसी पर विविध भाषाओं में अंकित
मुद्रा का मूल्य दरअसल मुद्रा के मूल्य से ज्यादा भारतीयों मूल्यों को ही व्यक्त
करता है, व्यक्त करता है भारत की समृद्धि को। भारत के भाषायी वैभव को। भाषा भारत
में विभेद का नहीं, वैभव का प्रतीक है। आइये हम भारत की भाषाओं को अपनायें. उनका
सम्मान करें, उन्हें सशक्त करे और उनका वैभव बढ़ाये। भारत की नयी शिक्षा नीति भी
भारतीय भाषायी मूल्यों की गरिमा से प्रेरित है उसका स्वागत करें।
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