लीची पर लगा मौत का कलंक!
“आम फलों का राजा होता लीची होती रानी
गुठली ऊपर गूदा होता छिलका है बेमानी”
मुजफ्फरपुर की लीची की शान का अंदाज़ा तब हुआ जब एक
बार भोजपुरी में डब की हुई हॉलीवुड फिल्म “स्पाइडरमैन” के एक सीन में नायक अपने निश्चल प्रेम
को व्यक्त करते हुए नायिका से कहता है तुम तो मुजफ्फरपुर की लीची की तरह मीठी हो।
कहते हैं मुजफ्फरपुर की बेस्ट क्वालिटी की मीठी लीची स्थानीय आम लोगों को नसीब ही
नहीं हो पाती क्योंकि दुनिया भर के लीची प्रेमियों को इंतजार रहता है लीची की फसल
का। एक्सपोर्ट हो जाती है बेस्ट लीची। बची-खुची, छंटी-छंटाई लीची हम जैस
मध्यमवर्गीय लोगों के नसीब में आती है। मेरी बेटी भी लीची की दीवानी है लीची का सफेद मीठा गूदा उसे इतना
गुदगुदा देता है कि छोटी सी बिटिया उसे पाने की आस में खाना भी टाइम पर खाती है, होमवर्क भी करती है और अपने खिलौनों को समेट कर भी रख देती
है।
मुजफ्फरपुर में हाल ही में सवा सौ से ज्यादा बच्चों
की मौत का कलंक जब से लीची पर लगा है मैं सिहर उठता हूं क्योंकि मेरी बिटिया ने भी
लीची खाई है और वो भी थोड़ी बहुत नहीं जमकर। अरे भई डॉक्टर्स ने भी कहा है उसमें
मिनरल्स होते है, विटामिन से भरपूर है स्किन के लिए बढ़िया है। तभी तो लीची से
बाजार में बहार थी क्रेता-विक्रेता, किसान-व्यापारी सब लीची से मालामाल रहे। थकान
भी भरी दुपहरी में दूर कहीं ठेलों में सजी-संवरी लीची दिख भर जाये तो कलेजा ठंडा
हो जाता है। लेकिन पहली बार सुना लीची खाने से बुखार होता है वो भी ऐसा-वैसा नहीं “चमकी बुखार” । जिसके इलाज का अभी तक अता-पता नहीं
है। लीची का बुखार इतना बेहरम कि सिर्फ बच्चों को लीलता है। हमारे बच्चों के मरने
का सिलसिला थम नहीं रहा और गुस्साये लोग लीची की खाल उधेड़ रहे हैं।
लीची की शान मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार फैला कैसे? एक से दो, दो से दर्जन, दर्जन से
सैकड़ा पार कर गया बच्चों की मौत का आंकड़ा। जब
पहली मौत हुई तो क्या कर रहे थे मुजफ्फरपुर के डॉक्टर? जब दूसरा बच्चा मरा तो क्या कर रहा था अस्पताल का प्रशासन? मौत जब दर्जन पार हुई तो प्रशासन ने
क्या किया? मौत
का आंकड़ा सवा सौ को पार कर गया तब 18 दिन के बाद मुख्यमंत्री मुजफ्फरपुर पहुंचे, उनके
मुंह से एक शब्द नहीं निकला। वो बताते कि वो मुजफ्फरपुर क्यों गये हैं? अपने साथ वो किन मेडिकल विषेशज्ञों
को लेकर गये? उनके
काफिले में राहत का क्या इंतजाम था? सीएम कोई मजाक नहीं है वो समाधान है
रोते बिलखते मां-बाप का। सीएम कोई छोटा-मोटा आदमी नहीं होता
है वो प्लान है, वो एक्शन है, मौतों पर लगने वाला पूर्णविराम है। मुश्किल में खड़े
मुजफ्फरपुर में सीएम ही दवा है, दुआ है और उम्मीद है। लेकिन वो आये और मीटिंग करके
चले गये। बच्चों की मौत पर छाती पीटते
हताश मुजफ्फरपुर के लोगों को जब ना दवा मिली, ना दिलासा तो लोग अपने खुदा, अपने
माई-बाप, अपने सीएम को ही गरियाने लगे। क्या करें मुजफ्फरपुर की बेचैन आत्मा? कहां जाये, कहां रोये, कहां सिर-पीटे,
किससे कहें, कौन सुने? उस पर बिहार के स्वास्थ्य मंत्री की विश्वकप क्रिकेट को लेकर चिंता भी बढ़ती
जा रही है, भारत की साख जो दांव पर लगी है।
मुजफ्परपुर में ये पहली बार नहीं हुआ है, साल 2000 के
बाद से रह -रह कर इस बीमारी ने सिर उठाया है। आंकड़ों के मुताबिक 2010 तक इस
बीमारी से 1000 से ज्यादा बच्चों की चमकी बुखार से मौतें हो चुकी हैं। क्यों सरकार
और प्रशासन ने ऐसी मौत को रोकने के कदम नहीं उठाये? क्यों इसके कारणों को नहीं खोजा जा सका? हर बार की तरह इस बार भी कुछ दिन बाद प्राकृतिक व्यवस्था के
तहत ये मौतें खुद-ब-खुद थम जाएंगी और बिहार के डॉक्टर, वहां का प्रशासन और वहां
के सियासी लोग फिर वहीं रोजमर्रा की तरह अपने अपने- अपने धंधे
में लग जायेंगे। क्योंकि कसूर किसी का नहीं है कसूर लीची का है। लीची ने बेईमानी
ना की ही तो बच्चे नहीं मरते।
एक बार मान लेते हैं कि लीची ही है गुनहगार, लेकिन किसी ने देखा कि मरनेवाले
बच्चों को पोषण से भरा आहार मिल रहा था क्या? क्या पहले बच्चे की मौत को डॉक्टर्स ने सीरियसली लिया? क्या अस्पताल में मौत को रोकने के
लिए जरूरी इंतजाम थे? क्या अस्पताल में जरूरी दवाएं थी? बच्चों की मौत को रोकने के लिए प्रशासन से बाहर से क्या मदद बुलाई? किसी एक्सपर्ट की मदद ली गई? लीची पूरी दुनिया में लोग सदियों
से खा रहे हैं अचानक लीची को संदिग्ध क्यों बनाया जा रहा है? हमारे बच्चे मर रहे हैं हमारी
नस्लें बरबाद हो रही हैं और एक लीची इतनी बड़ी गुनहगार कैसे हो सकती है?
हम भारत में रहते हैं, भारत बहुत बड़ा देश है इनते बड़े देश में छोटे-छोटे
बच्चों को संभालना बड़ा मुश्किल काम है। हम सबको याद है 2017 में गोरखपुर में
इंसफलाइटिस के चपेट में आने से कैसे बच्चों की मौत हो रही थी और हद तो तब हो गई जब
आक्सीजन सप्लाई रूकने से 48 घंटों के अंदर 36 मासूमों की मौत हो गई थी। तब गोरखपुर
में लीची का सीजन नहीं था।
सूरत में करीब 21-22 बच्चे पिछले महीने कोचिंग सेंटर में जल कर मर गये, हम
सबने बर्दाश्त कर लिया क्योंकि हमको बताया गया कि फायर ब्रिग्रेड समय पर नहीं
पहुंच सका और जब पहुंचा तो उसके पास सीढ़ीयां नहीं थी और अग्निशमन के आधुनिक उपकरण
भी नहीं थे। लोगों ने भी कहां अब इंतजाम ही नहीं है तो क्या करें। हादसा है कभी भी
हो सकता है। अगर आसपास लीची के ठेले ही होते तो शायद सीढ़िया बना कर बच्चों की
जानें बचाई जा सकती थी?
हिंदु और मुसलमानों की महान सांस्कृतिक विरासत वाले देश में
छोटी-छोटी बच्चियों का बलात्कार हो जाता हैं तो जिम्मेदार लोग कह देते है ऐसी
एक-आध घटनाएं हो जाती हैं, कुछ लोग जात-पात खोज लेते है, कुछ लोग फैशन को मुद्दा
बना देते है, कुछ लोग विकृत मानसिकता पर आरोप लगा देते हैं ऐसे में आदतन अपराधी
क्या करें और क्या करे पुलिस उसको कोई सपना थोड़े ना होता है कि यहां अपराध होने
वाला हैं। मां -बाप भी तो अपने बच्चों पर नजर नहीं रखते। अरे कोई बच्चों को लीची
का लालच देगा तो बच्चे चाचू-मामू के पास तो जाएंगे ही।
अरे इस देश में दर्जनों बच्चे बोरवोल के गड्डों में गिर कर मर जाते है भई।
किसने बोला था कि लीची की डाल पर चढ़कर उछलों-कूदो।
किसी का पाप छुपाने के लिए इस बार मुजफ्परपुर की लीची ने अजजाने में एक और
महापाप कर दिया है। मुजफ्फरपुर की लीची पूरी दुनिया में बदनाम हो गई। मुजफ्फरपुर
का किसान, लीची का व्यापारी, लीची के शौकीन सब लीची को कोस रहे हैं। अभी तक जिस
तरह फिल्मों में हीरो मुजफ्फरपुर की लीची का हवाला मिठास के लिए करते थे अब हो
सकता है अब लीची का इस्तेमाल खलनायक करें और अट्टहास लगाते हुए कहें कि बेटा सो जा
नहीं तो लीची के खेत में छोड़ आएंगे।
2 comments:
बहुत ही बेहतरीन लेख सर
अद्भुत लेख!!!
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