Monday, May 13, 2019

मोदी ने बर्रे के छत्ते में सीधे हाथ डाला है

नेहरू-गांधी परिवार का ब्रांडिंग गेम बेनकाब!

स्पोर्ट्स चैनल में काम करते हुए मेरा देश में अलग-अलग शहरों के खेल स्टेडियम और स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स में जाने,  घूमने और काम  का मौका मिला इस दौरान जिस नाम से सबसे ज्यादा वास्ता पड़ा वो था कभी नेहरू तो कभी गांधी,  है ना हैरत की बात! केरल के कोच्चि में जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम, गोवा के फटोरदा मैदान का नाम जवाहर लाल, दिल्ली में जवाहर लाल, चेन्नई के मरीना एरिना का नाम जवाहर लाल स्टेडियम, हैदराबाद में क्रिकेट मैच कवर करने पहुंचे तो नाम राजीव गांधी इंटरनेशनल स्टेडियम । इस तरह आप पाएंगे कांग्रेस के राज में जो भी बड़ा स्टेडियम बनता था नाम सोचने की कवायद ही नहीं करनी पड़ती थी नेहरू, इंदिरा, राजीव । इस वक्त देश में 20 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय स्तर के ऐसे स्टेडियम है या फिर ऐसे  स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स है जो सीधे परिवार को समर्पित हैं । नेहरू इंटरनेशनल फुटबॉल कप जैसे करीब 30 बड़े टूर्नामेंट हैं जिसमें परिवार का नाम चलता है। राजीव गांधी खेल रत्न जैसे इस देश करीब 50 बड़े अवॉर्ड्स है जो इस परिवार के नाम पर दिये जाते है। स्पोर्ट्स में गांधी-नेहरू परिवार की ब्रांडिंग इतनी तगड़ी रही कि ध्यानचंद, मिल्खा सिंह, पीटी उषा जैसी खेल हस्तियों की उपलब्धि फीकी पड़ जाती है । आजादी के बाद से खेलप्रेमी ध्यानचंद के लिए भारत रत्न के लिए तरस रहे है । लेकिन ऐसा लगता है कि परिवार ने खुद के सामने कभी किसी को रत्न समझा ही नहीं । कांग्रेस के शासन में खेलों की जो दुर्गति और खेल आयोजन को लेकर जो बदनामी हुई है वो पाप जगजाहिर हैं।  
राहुल गांधी भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का नाम ठीक से उच्चारण नहीं कर पाते । कैसे करते? कभी उस तरह सुने होते जिस तरह नेहरू- गांधी परिवार का नाम रटाया और बसाया गया है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पिछले 70 सालों में कैसे लोगों ने घुसपैठ की ये बात मोदी राज में उजागर हो चुकी है।  इस देश में एक चाणक्य, राधाकृष्णन, सावित्रीबाई फुले, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे महान शिक्षाविद हुये लेकिन आजादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में भी ब्रांडिंग हुई तो सिर्फ परिवार की । इस देश में 100 से ज्यादा यूनिवर्सिटी, कालेज, स्कूल और शिक्षण संस्थान है जिनके नाम परिवार से प्रेरित है ।  करीब 20 स्कॉलरशिप और फैलोशिप परिवार के नाम पर सरकार देती है।

2019 का चुनाव भी कांग्रेस गरीब को न्याय के नाम पर लड़ रही है । विनोबा भावे, लोहिया, जेपी, कांशीराम और दीनदयाल उपाध्याय के इस देश में गरीबी से लड़ने की ब्रांडिंग, विकास की ब्रांडिग पर भी गांधी-नेहरू परिवार की कब्जा है । कांग्रेस के राज में 18 से ज्यादा बड़ी केंद्रीय कल्याणकारी योजनाओं का नाम परिवार के नाम पर है। और राज्य कांग्रेस सरकारों ने भी चाटुकारिता की होड़ में पचास से ज्यादा जनकल्याणकारी योजनाओं का नाम परिवार को ही समर्पित किया है। चरक, सुश्रुत, बाणभट्ट, बाराह मिहिर जैसे प्राचीन भारत के विद्वानों को तो कांग्रेस के लोग कल्पना मानते है लेकिन जयंत विष्णुदनार्लीकर, विक्रम साराभाई,जगदीश चंद्र बोस , होमीजहांगीर भाभा,सत्येंद्रनाथ बोस, हरगोंविंद खुराना और सीवी रमन जैसे तमाम विभूतियों की तो ब्रांडिग हो सकती थी लेकिन आप पायेंगे पॉवर प्लांट, वैज्ञानिक शोध संस्थान, कई खगोलीय महत्व की चीजें बिना झिझक के परिवार के नाम कर दी गई । करीब 40 से ज्यादा इंस्टीट्यूशन्स, करीब 40 से ज्यादा मेडिकल कॉलेज और स्वास्थय केंद्र परिवार ने नाम पर थोक के भाव  झोंक दिये गये है।

कांग्रेस के शासन काल में आजादी से जुड़े महापुरूषों को धीरे-धीरे कर ऐसे मिटाया गया कि वर्तमान पीढ़ी के लोग तिलक, गोखले, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, बोस, मौलाना आजाद जैसे महान कांग्रेसी नेताओं को गूगल में खोजते है । वो भी मिल गये तो ठीक वर्ना  कई तो इतिहास में खो चुके हैं । क्योंकि इस देश 70 से ज्यादा महत्वपूर्ण सड़कें और इमारतें परिवार के नाम पर है। गूगल में आप सर्च कीजिये 20 से ज्यादा राष्ट्रीय उद्यान और सेंचुरीज गांधी-नेहरू परिवार के नाम पर है । इस देश में 10 हवाई अड्डे परिवार के नाम पर है । इसके अलावा आप भारत के नगर, गांव, पंचायत,गली-मोहल्ले स्तर पर जायेंगे तो परिवार के चाटुकारों ने रिकॉर्ड तोड़ दिया है।

आजादी के बाद आप सिर्फ हिसाब लगाइये  इस परिवार की ब्रांडिंग पर कांग्रेस ने सरकार का लाखों नहीं , करोड़ों नहीं , अरबों भी नहीं, खरबों रूपया लुटा दिया । ये रुपया परिवार का नहीं है ये रूपया था भारत के गरीब किसान, मजदूर औऱ जवानों के खून पसीने का । देश के आय़कर दाताओं का । सोचिए कांग्रेस के लोग मोदी के सरकारी विज्ञापन का हिसाब मांग रहे हैं । विदेश जाने का ब्योरा मांग रहे हैं । विंग कमांडर अभिनंदन की वापसी उनकी विदेश नीति की कामयाबी का सबसे बड़ा और जिंदा प्रमाण है ।  नेहरू और राजीव की सरकारी पिकनिक को मान्यता देनेवाले लोग मोदी से उनके कपड़ों का हिसाब मांग रहे । मशहूर है जिनके कपड़े पैरिस में धुलने जाते थे और जिनकी सिगरेट के इंतजाम के सरकारी विमानें उड़ान भरा करती थी वो मोदी के दौरे का हिसाब मांग रहे हैं। आखिर दुनिया में परिवार की साख का सवाल जो है।  
   
सरदार पटेल की मूर्ति और उनके कद को देखकर परिवार और उनके चाटुकारों की बेचैनी का समझा जा सकता है। कभी वो कहते हैं इस पैसे से गरीबी दूर हो सकती थी, कभी तर्क देते  है कि इस पैसे से बेरोजगारी दूर हो सकती थी कभी कोई विद्वान इसे फिजूलखर्ची बता गया । ऐसा पूछने वालों ने कभी देशभऱ में खड़ी परिवार के लोगों की लाखों  मूर्तियों का हिसाब जोड़ा है क्या ?  दरअसल कहानी ये है कि मोदी के राज में परिवार की ब्रांडिंग पर पटेल की ये महामूर्ति सबसे बड़ा सवाल खड़ा करती है । उन तमाम साजिशों में बेनकाब करती है कि कैसे इस परिवार ने इस देश के महापुरूषों के साथ और देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया है।

मोदी को लेकर  कांग्रेस में छटपटाहट  है क्योंकि मोदी ने महन मोहन मालवीय को भारत रत्न दिया । जब  कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न मिला तो उस दिन पार्टी में जश्न होना चाहिए था क्योंकि ये सम्मान विरोधियों ने दिया है लेकिन नहीं उल्टे पार्टी और परिवार को सांप सूंघ गया । आखिर उनकी सालों की ब्रांडिग पर चोट जो हो रही थी । आप खुद सोचिए लाल बहादुर शास्त्री और गुलजारी लाल नंदा भी कांग्रेस से प्रधानमंत्री बने लेकिन कभी वो कांग्रेस का चेहरा नहीं बन पाये । नरसिम्हा राव भी कांग्रेस से ही प्रधानमंत्री थे लेकिन परिवार की कठपुतली बने मनमोहन सिंह ने अंतिम संस्कार के लिए उन्हें दिल्ली में जगह नहीं दी और पार्टी दफ्तर में शव को रखने की इजाजत भी कांग्रेस ने नहीं दी। क्योंकि इससे परिवार की ब्रांडिंग टूटती ।

नेहरू से लेकर राजीव ने नाम तक कांग्रेस ने हमेशा चुनावी फायदा लिया है और ले रही थी । लेकिन जब मोदी ने आइना दिखाना शुरू किया तो परिवार और इनके चाटुकारों की चूलें हिल गई । संस्कार और मर्यादा की दुहाई दी जाने लगी । लेकिन भारत के लोग अब बातें करने लगे कि कैसे परिवार ने अपने प्रभाव को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए तंत्र का भयंकर दुरुपयोग किया । कैसे सरकारी खजाने की लूट हुई? कैसे अपने नाम के सामने बाकी महापुरुषों के खिलाफ साजिश रची गई? आप अंदाजा लगाइये कि प्रधानमंत्री ने परिवार को बेनकाब करने के लिए  बर्रे के छत्ते में हाथ डालने का जो जोखिम लिया है उससे सबसे ज्यादा तकलीफ किसको हुई है?       

Thursday, May 9, 2019

कांग्रेस का तुरूप का इक्का भी बेकार निकला

दरकती विरासत को बचाने की आखिरी कोशिश भी नाकाम!

आनन-फानन की राजनीति, तुक्के की राजनीति, करिश्मे की राजनीति, ग्लैमर की राजनीति, चमक-दमक की राजनीति, विरासत में कलई लगाने की राजनीति, वंशवाद के महिमामंडन की राजनीति  ये वो तमाम कारण है जिसको ध्यान में रखकर कांग्रेस ने 2019 के चुनाव में प्रियंका गांधी का सहारा लिया । प्रियंका को सियासत में उतार कर कांग्रेस ने ये भी  साबित कर दिया की मोदी से जीतना राहुल के अकेले के बस की बात नहीं है। प्रियंका को कांग्रेस ने हमेशा तुरूप के इक्के की तरह अपने भविष्य के सियासत के लिए बचा कर रखा था लेकिन खेल हो या राजनीति टाइमिंग का बड़ा महत्व होता है । मीडिया में प्रियंका गांधी की एंट्री की झांकी सजने ही वाली थी कि पाकिस्तान पर भारतीय सेना ने एयरस्ट्राइक कर दिया और राजनीति में प्रियंका के शुरूआती दस दिन में जो अपेक्षित माहौल बनना था वो बन ही नहीं पाया।

राजनीति की जमीन पर खड़े होने वाले यूं तो आपना कद मेहनत से बनाते हैं लेकिन प्रियंका को ये विरासत में हासिल था। उनके हिस्से में विरासत की कलई चमकाने की जिम्मेदारी थी, लेकिन उनका पहला ही कदम राजनीति में फ्लॉप साबित हुआ । प्रियंका भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर उर्फ रावण से मिलने चली गईं । इस मुलाकात से कांग्रेस को कुछ मिला नहीं बल्कि मायावती से नाराजगी अलग मोल ले ली । कुल मिलाकर दलित वोटों को साधने की उनकी मंशा भी जाहिर हो गई और हाथ  भी कुछ नहीं आया । इसी को कहते ना खुदा मिला ना बिसाले सनम।

राजनीति में सकेंतों के बड़े मायने होते है, भाषा, उपमा, अलंकार, बॉ़डी लैंग्वेंज भी राजनीति के महत्व को बनाते और बिगाड़ते हैं । जिस गंगा को देखकर मॉरीशस के राष्ट्रध्यक्ष ने डुबकी लगाने का कार्यक्रम रद्ध कर दिया था उस गंगा के तट पर  प्रियंका ने गंगाजल को हाथ में लेकर होंठों से लगाया था हिंदुत्व को साधने के लिए और  विरोधियों ने देर नहीं की नमामि गंगे की सफलता को प्रमाणित करने में । प्रियंका गांधी ने जनता से संवाद करने के लिए गंगा में  नौका यात्रा की और विरोधियों ने गंगा की सफाई पर अपनी मुहर लगावा ली । प्रियंका को मालूम होना चाहिए था कि जिस गंगा को लेकर वो राजनीति करने जा रही है उसमें उनकी भद पिट सकती है क्योंकि गंगा सफाई के नाम पर एक बार उनके पिता राजीव गांधी भी वोट मांग चुके थे ।  हनुमान मंदिर जाना, विंध्यवासिनी के मंदिर, यूपी के मंदिरों में प्रियंका गांधी का दौरा कोई छाप नहीं छोड़ पाया । जगजाहिर है कि  चुनाव के हिसाब से प्रियंका  अपनी वेशभूषा भी बदल  लेती है। राहुल की तरह प्रियंका की राजनीति में भी मौलिकता का अभाव है जिसकी वजह से वो जनता से  विश्वनीय संवाद कायम करने में वो नाकाम रही।

कांग्रेस ने स्टैंड तैयार किया कि चौकीदार चोर है प्रियंका ने चौकीदार को शहंशाह कह कर ये जता दिया कि इस कैम्पेन में कांग्रेस गच्चा खा चुकी है। प्रिंयका इससे पहले भी रायबरेली और अमेठी में अपने परिवार के लिए कैम्पेन कर चुकी है इसलिए आकर्षण वाला फैक्टर भी ज्यादा प्रभाव नहीं दिखा सका।

अगर इस चुनाव कोई चीज प्रियंका को सबसे ज्यादा सुर्खियां दिला सकती थी, अगर इस चुनाव में आखिरी चरण तक कोई बात कांग्रेस में जान फूंक सकती थी तो वो थी प्रधानमंत्री के खिलाफ प्रियंका की बनारस से दावेदारी । प्रियंका ने प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ने का सवाल पूछ कर दांव तो बहुत तगड़ा चला था और अगर वो ऐसा करने का दम दिखा देती तो जनता को यकीन भी दिला पाती कि वाकई वो इस चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है । ये चुनाव अपने आखिरी लम्हों तक जिंदा रहता।  ज्यादा से ज्यादा क्या होता प्रियंका चुनाव हार जाती । चुनाव तो इंदिरा जी भी हारी थी, अटल जी भी हारे थे लेकिन राजनीतिक करियर खत्म नहीं हुआ बल्कि संघर्ष के अगले पड़ाव की ओर अग्रसर हो चला । प्रियंका ने जोखिम नहीं लिया और जनता के बीच ये संदेश चला गया कि मोदी को हराना नामुमकिन है। बनारस से चुनाव लड़ने के मामले में प्रियंका खोदा पहाड और निकली चुहिया साबित हुई। उल्टे पीएम की खिलाफ  कमजोर प्रत्याशी उतारने वाले उनके बयान ने कांग्रेस की छवि यूपी में वोट कटवा पार्टी की बना दी ।  
पंडित नेहरू ने विदेशियों को सांप-सपेरों का खेल दिखा कर भारत की छवि सपेरों वाले देश की मजबूत की तो प्रियंका ने भी सपेरों से मन बहलाकर परिवार की इस परंपरा को आगे बढ़ाया । यूपी में  बच्चों से चौकीदार चोर के नारे लगवा कर प्रिंयका गांधी ने अपनी सस्ती सोच भी जाहिर कर दी औऱ जब छोटे-छोटे बच्चे गाली-गलौज पर उतर आये तो उनको शर्मिंदा भी होना पड़ा। उस पर प्रधानमंत्री पर ताबड़तोड़ निजी हमलों ने इस चुनाव में उनके स्वर्गीय पिता राजीव गांधी पर लगे  भष्ट्राचार के आरोपों को भी जिंदा कर दिया । 

इस चुनाव के चक्रव्यूह में प्रियंका बुरी तरह फंस गयी, ना तो वो  विरासत की गरिमा बचा सकी । ना परिवार की प्रतिष्ठा और ना ही अपनी पार्टी की विश्वसनीयता । मुहावरा है बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की । प्रियंका गांधी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश कुछ ऐसा रहा ।