Sunday, August 27, 2017

वक्त बाबा रामरहीम को कोसने का नहीं खुद से घृणा करने का है

आसाराम बापू - बलात्कार का आरोपी

रामपाल – आश्रम में गर्भपात सेंटर चलाने का आरोप

बाबा राम रहीम – बलात्कारी



मुंह में राम बगल में छुरी “ विकास के क्रम में विकसित होकर अब ये मुहावरा हो गया है नाम में राम दिल से बलात्कारी” और ये इस बात का प्रमाण है कि सरकारों ने , समाज ने और परिवार ने हमारे राम को,  हमारी शिक्षा को,  कितना गिरा कर रख दिया है ।

कथा ही सही लेकिन कल्पना कीजिए एक आदमी इस धरती पर ऐसा आया जिसने राम के नाम को मर्यादा पुरूषोत्तम के तौर स्थापित किया । राम नाम को मर्यादा पुरूषोत्तम के तौर पर स्थापित करने लिए उस राम ने अपने पिता की एक बात का मान रखने के लिए महल को छोड़ दिया । केवट, निषाद और शबरी के साथ वनवासी की जिंदगी जीकर ये बताया कि मानव और मानव में ऊंच-नीत के नाम पर, जाति के नाम पर कोई भेद हो ही नहीं सकता । अरे उस राम ने  जटायु गीद पक्षी का मृत्यु संस्कार करके  ये बताया कि जीवन पशुता और मनुष्यता में भी कोई भेद नहीं करती । उसने समाज के ताने सहे, लेकिन समाज को नहीं छोड़ा ,  समाज को सही राह पर दिखाने के लिए पत्नी के विछोह को छेला ।
हर कदम पर सेवा, हर कदम पर त्याग, हर कदम पर मानवता को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए सतयुग में जन्में राम नाम के एक व्यक्ति ने, राम के नाम को प्रमाणित करके दिखाया और ये प्रमाण इतना जीवंत  हो गया कि युग बीत गये लेकिन राम की  महिमा उनकी दी ही शिक्षा प्रासंगिक बनी रही क्योंकि ज्ञानियों ने , गुणियों ने  राम को जाना , जब जाना, तब माना , और फिर जब आपने अपने  माने हुए को  जान लिया तो  फिर यहां पर पूरा हुआ उनके शिक्षा का क्रम, पूरी हुई उनकी साधना  और वो साधु शब्द से सुशोभित हुए ।  
तुलसी ने जब राम को जाना तब लिखा कि सियाराम मय सब जग जानी करहु प्रमाण जोरी जुग पानी “ संसार का कण-कण राम नाम में संपृक्त है और जब इस राम को जान लिया तो काम, क्रोध, मद और लोभ ,जैसे नर्क के पंथ पर कदम पड़ ही नहीं सकते । क्योंकि राम को तो पसंद है  निर्मल मन” । मन में राम तो जीवन एक मंदिर । तो तुलसी के  राम, हनुमान के राम, शबरी के राम, लक्ष्मण और भरत के राम , सीता के राम एक व्यक्ति का नहीं एक शिक्षा का नाम है, एक संस्कार का नाम है जिसे इन लोगों अपने जीवन में जिया और इन लोगों ने उस  शिक्षा की भक्ति की और राम भक्त बने । ये अंधे भक्त नहीं , ये लोग व्यक्ति के भक्त नहीं थे , किसी भगवान के भी भक्त नहीं थे । ये सब के सब उस विचार के भक्त थे जिसे राम ने शुरू किया और लोगों ने इस रामनामी शिक्षा को, परंपरा को इतना विकसित किया राम के भक्त तुलसीदास को रामचरितमानस में लिखना पड़ गया कि राम से भी बड़ा है राम का नाम । यानी कि उस विचार का नाम, उस शिक्षा का नाम, उस संस्कार और परंपरा का नाम । शिक्षा की सबसे सटीक परिभाषा का नाम राम हो गया ।     
        
अब अगर इस देश में बलात्कार के आरोपी आसाराम है और उनके  करोड़ों भक्त हैं । रामपाल के नाम पर लाखों लोग जान देने के लिए तैयार है और बाबा  रामरहीम के व्यभिचार पर पर्दा डालने के लिए लोग शहर जलाने पर आमादा  तो समझ जाइये कि सरकारों ने, समाज और परिवार ने राम की शिक्षा को कहां से कहां पहुंचा दिया है । साफ है लोगों राम के नाम को पकड़ लिया और उनकी शिक्षा को छोड़ दिया । और जब शिक्षा छूटती है,  तो विचार छूटता है , संस्कार छूटता है, फिर क्या परिवार,क्या समाज और क्या राष्ट्र ।  तब तो व्यक्ति रामनामी दुशाला ओढ़कर सिर्फ लूटता है, ठगता है और व्यभिचार करता है । वर्तमान में आसाराम, रामपाल और बाबा रामरहीम इस बात का प्रमाण है कि हमारी शिक्षा और हमारा संस्कार क्या है । बाजारवाद के दौर में सब एक दूसरे को  ठग रहे हैं क्योंकि हम सब के भीतर छोटा या बड़ा आसाराम सांस ले  रहा है , हम सब एक दूसरे को लूट रहे है क्योंकि कोई रामपाल हमारे भीतर भी पल रहा है  और हम सब एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं क्योंकि कोई हमारे भीतर एक बाबा राम रहीम फल-फूल रहा है जो हमारे व्यभिचार  को पोषण दे रहा है ।

आज तमाम मीडिया में बाबाओं के बलात्कार के किस्से, उनके अपराध के किस्से, उनकी विलासिता के किस्से सुर्खियों में है और सब पानी पी- पी कर उन्हें और उनके भक्तों को कोस रहे हैं । जबकि सच ये हैं कि बाबाओं की आलीशान दुकान हमारे अपने चरित्र का प्रमाण पत्र है । ये लोग हमारे पैसों पर मौज कर रहे हैं । हमारे परिवार, समाज और राष्ट्र के लोग ही इनके भक्त है और हमारे चुने हुए नेता इनका इस्तेमाल करते हैं और हमारा शासन- प्रशासन इनका बंधक है।  वो तो किसी एक व्यथा और पीड़ा इतनी बड़ी गई, हालात ऐसे बन गये कि  बाबा की दुकान बंद हो गई वर्ना इन बाबाओं की आड़ में हर कोई अपने अपने तरीके से अपना -अपना उल्लू सीधा कर ही रहा था ।


तो ये वक्त बाबाओं को कोसने का नहीं खुद को जानकर खुद से घृणा करने का है । 

Monday, June 5, 2017

धरती बुखार से तप रही है

पांच जून - विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष  

बुखार अच्छे भले आदमी को बेचैन करने के लिए काफी है। बुखार में तपता इंसान बदहवास सा हो जाता है। एक बुखार आदमी के श्वसन तंत्र, उत्सर्जन तंत्र  से लेकर दिमाग तक शरीर के किसी भी हिस्से को नुकसान पहुंचा सकता है । सामान्य मनुष्य का तापमान जैसे ही सैतीस डिग्री सेल्सियस को पार करता है इंसान हवा, पानी और ठंडक पाने के लिए छटपटाने लगता है। 
आदमी को बुखार हो तो डॉक्टर माथे पर गीली पट्टी रखने को कहते है, खुली हवा में बैठने को कहते है, यही नहीं उसके खानपान में भी ऐसी चीजें मुहैय्या करायी जाती है जिससे उसके शरीर की गर्मी कम हो । 
अगर तमाम उपायों के बावजूद भी इंसान के शरीर के तापमान को कम नहीं किया गया तो उसे मौत के मुंह में जाने से कोई नहीं रोक पाएगा । बुखार जानलेवा होता है।
अबकी बार इस जानलेवा बुखार ने किसी इंसान को नहीं बल्कि इसके जीवन आधार को ही अपने चपेट में ले लिया है। मनुष्य के जीवन का आधार ये धरती बुखार से तप रही है और किसी डॉक्टर, वैज्ञानिक, सरकार किसी में अभी तक ये हैसियत नहीं दिखी है कि इस धरती के तापमान को कम कर पाये। 
धरती के बढ़ते तापमान से परेशान सब है, वैज्ञानिक शोध पर शोध कर रहे हैं, दुनिया भर के नेता सालों से  ग्रीन हाउस प्रभाव को लेकर बातें कर रहे हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े-बड़े सम्मेलन हो रहे हैं, अरबों -खरबों रुपये खर्च हो रहे हैं,  लेकिन धऱती का तापमान है कि एक डिग्री कम नहीं हो पा रहा है। 
मौसम का एक डिग्री सेल्सियस गर्म या ठंडा होना तो सामान्य सी बात है। लेकिन जब बात पूरी धरती के औसत तापमान की हो तो इसमें मामूली सी बढ़ोतरी के भयंकर नतीजे सामने आते हैं।
नासा के मुताबिक धरती का औसत तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। अब भी अगर नहीं संभले और धरती एक डिग्री और गर्म हुई तो पीने के पानी के लिए तरस जाएंगे लोग। 
धरती जब बुखार से तपती है तो समुद्र का पानी उबलने लगता है, रिपोर्टस बताते है कि समुद्र में आक्सीजन कम हो रहा है,  ग्लेशिय़र पिघलने लगता है, हरे-भरे इलाके रेगिस्तान में बदल जाते हैं और इस तबाही को ये धरती पिछले कई सालों से भोग रही है,देख रही है । उन्नीस सौ तीस में अमेरिका के नेब्रास्का का हरियाली से भरा इलाका रेत के ढेर में तब्दील हो चुका है । 2005 में भूमध्य रेखा के पास साफ पानी के तमाम स्त्रोत सूख गये । 
अब अगर धरती का बुखार नहीं रूका और एक डिग्री और बढ़ गया तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि समुद्र का जलस्तर छह मीटर बढ़ जाएगा । यानी हिंद महासागर में स्थित में मालद्वीप जो सागर से सिर्फ डेढ़ मीटर ऊपर है उसके बचने की संभावना तो ना के बराबर दिख रही है। 
सवाल ये हैं जब खतरा इतना भयंकर है, दुनिया के देश, वहां की सरकारें और वहां के लोग इतने लापरवाह क्यों है?  जाहिर है सबकों लगता है पड़ोसी के घर में बुखार से कोई तपे तो हमें क्या , उसका ख्याल वो रखे, हमारा काम तो सिर्फ हाल-चाल पूछ कर औपचारिकता पूरी करना है । वो ये नहीं जानता कि बुखार कैसा भी हो वो संक्रामक होता है, तेजी से फैलता है पीड़ित के बाद सबसे पहले वो पड़ोसी को चपेट में लेता है । 
उसी तरह इस धरती को लोगों ने पड़ोसी का बीमार बच्चा समझ कर छोड़ दिया है जबकि धरती पड़ोसी की जिम्मेदारी नहीं है हर इंसान की जिंदगी का हिस्सा है। 
तो फिर इसका उपचार क्या है? तो बुखार का बरसों से एक ही घरेलू और कारगर उपाय है और वो है माथे पर गीली पट्टी और ये पट्टी तब तक रखों जब तक तापमान उतर ना जाये । 
अब इस धऱती के माथे पर गीली पट्टी रखे कौन? धऱती को खुली हवा कैसे मिले? धरती को प्रदूषण से कैसे बचाये? धरती को भोजन में क्या दे इसके सारे अंगों को ठंडक नसीब हो? 
जिस तरह डॉक्टर सिर्फ इलाज की पर्ची लिख सकता है, नर्स/ कंपाउंडर इंजेक्शन लगा सकते हैं मदद कर सकते हैं लेकिन मरीज की तीमारदारी तो  चौबीसों घंटे घर वालों को,  परिवार वालों को ही करनी पड़ती है तब जाकर उतरता है एक सामान्य आदमी का बुखार । 
उसी तरह वैज्ञानिकों ने बता दिया है, पर्यावरण विषेषज्ञों ने, सरकारों ने नर्स और कम्पाउंडर बन कर जन -जन तक जागरूकता भी पहुंचा दी है लेकिन जब तक इस धरती पर ऱहने वाला एक- एक आदमी गीली पट्टी लेकर नहीं निकलेगा धरती का तापमान कम करने की कोशिश नाकाफी है । 
धरती के लिए गीली पट्टी का मतलब है पेड़ लगाना, धरती को खुली हवा दिलाने का मतलब है हर तरह से प्रदूषण को रोकना, धरती को ठंडक देना का मतलब है नदियों में गंदा पानी और रसायन जाने से रोकना, धऱती को पौष्टिक भोजन देने से मतलब है उसकी मिट्टी को प्राकृतिक खाद से उपजाऊ बनाना और कृत्रिम खाद और रसायन से बचाना ।
और जान लीजिए मौजूदा परिस्थियों में धऱती के बुखार को उतारने ये सिर्फ एक कोशिश है, धरती का बुखार इस कदर बेकाबू हो चुका है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि बुखार उतर ही जाये कुल मिलाकर मौत के मुहाने पर खड़ी है धरती, बचा सको तो बचा लो 

Wednesday, May 24, 2017

पूरब, पश्चिम और उत्तर के बाद दक्षिण को जीतने की तैयारी में अमित शाह

2019 में तेलंगाना को करेगी बीजेपी टारगेट

तेलंगाना दक्षिण में बीजेपी के लिए प्रवेश द्वार बने,  अब अगर अमित शाह ने ऐसा ठान लिया है और एलान कर दिया है  तो खलबली तो मचनी ही थी । अपने तीन दिन के तेलंगाना प्रवास के दौरान उन्होंने वहां के मुख्यमंत्री की रातों की नींद और दिन का चैन सब छीन लिया । मुख्यमंत्री पर राजनीतिक हमला बोलने का शाह ने कोई मौका नहीं छोड़ा । उन्होंने मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव पर नाकामी का आरोप लगाते हुए कहा कि वो केंद्र सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लागू करने में पूरी तरह से नाकाम है। अब एक हाई प्रोफाइल और हैवीवेट पार्टी प्रेसीडेंट का तेलगांना की चिलचिलाती धूम में यूं दरवाजे-दरवाजे पर जाना ये बताता है कि बीजेपी का प्लान ऑफ एक्शन कितना तगड़ा और महत्वाकांक्षी है।
22 मई को अमित शाह ने नल्लगोंडा जिले के  थेराटपल्ली गांव की दलित कॉलोनी में लंच करके ये बता दिया पार्टी हर स्तर पर खुद को मजबूत करेगी । उन्होंने पार्टी के लिए शहीद होने वाले कार्यकर्ता जी मेसैय्या की प्रतिमा का अनावरण के करके कार्यकर्ताओं को संदेश दिया कि उनका बलिदान बेकार नहीं होगा। घर-घर जाकर अमित शाह ने खुद अपने हाथों से "मेरा घर-भाजपा का घर" स्टीकर चिपकाया । वेलुगोपल्ली गांव में शाह ने दीनदयाल उपाध्याय की प्रतिमा का अनावरण भी किया ।

23 मई को शाह चिन्नमाद्रम गांव में अपने अभियान की शुरूआत विवेकानंद की प्रतिमा के अनावरण से की । यहां उन्होंन एक तीर से कई निशाने साधे । इस गांव की महिला सरपंच भाग्यअम्मा  को शाह ने सम्मानित किया । सरपंच भाग्यअम्मा की तारीफ कर शाह ने गांव के छोटे- छोटे कार्यकर्ताओं की ये संदेश देन की कोशिश की पार्टी सबका साथ और सबका विकास के नारे को पूरे अंत:करण से अपना चुकी है। गांव के हर घर में टायलेट बनाने की कोशिश हो, गांववालों को जन-धन योजना से जोड़ना हो या फिर पीएम उज्जवला योजना का लाभ दिलाना हो सरपंच भाग्यअम्मा ने बीजेपी अध्यक्ष की सराहना हासिल की। उन्होंने पिछड़े लोगों की सभा को भी संबोधित किया । नारीरेकल विधानसभा क्षेत्र में गुंद्रामपल्ली गांव में उन्होंने द्वार-द्रार पहुंच कर संपर्क किया, स्थानीय वरिष्ठ लोगों को सम्मानित  किया और उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश की वर्तमान सरकार पूरी तरह से गरीबों के उत्थान में लगी है ।

आखिर में हैदराबाद में बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन के माध्यम से वो पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरने में भी कामयाब रहे । जिस तरह से उन्होंने तेलगांना सरकार को आड़े हाथों लिया उससे ये तो साफ हो गया कि बीजेपी तेलगांना में अपने लिए जमीन तैयार करने में जुट गई है । बीजेपी की इस मेहनत को देखते हुए सत्तारुढ़ टीआरएस का तिलमिलाना लाजिमी है ।
लक्ष्यद्वीप के बाद जिस तरह से अमित शाह तेलगांना बीजेपी में प्राण फूंके है ,पार्टी प्रेसीडेंट का राज्य के घऱ-घर में जाकर  लोगों के मुलाकात करने की आक्रामक रणनीति से ये तो तय हो गया है कि बीजेपी अपने मौजूदा विस्तार से खुश होकर बैठने वाली नहीं है। पार्टी ने जैसे उत्तर भारत, पश्चिम भारत और पूर्वी भारत में अपना परचम फहराया है वो कुछ वैसा ही करिश्मा दक्षिण भारत में करना चाहती है । दक्षिण में द्वार-द्वार शाह की दस्तक में ये सकेंत साफ छुपा है वो पार्टी के लिए  ऐसी देशव्यापी जमीन तैयार करने में लगे है जहां विरोधियों के लिए पैर रखने की भी गुंजाइश ना हो । पार्टी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को पीछे छोड़ कर आगे की सोच रही है जिसमें लक्ष्य है यत्र, तत्र, बीजेपी सर्वत्र ।  

चार जून को भारत शौर्य और पाकिस्तान अपनी शर्मिंदगी लेकर उतरेगा # चैम्पियन्स ट्रॉफी2017

एजबेस्टन में एक बार फिर क्रिकेट के बहाने साख का संग्राम और भी कांटे का होगा
उस दिन पाकिस्तान की हंसी मर गई थी, पाकिस्तान क्रिकेट टीम की लाचारी और बेबसी के आलम को बयां करना अमानवीय बर्ताव लग रहा था । ऐसे लगा था कि मरे हुए को और कितना मारें । खिलाड़ियों के कंधे झुके हुए थे, आंखें धंसी हुई थी, चेहरे में नूर का नामों- निशान दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। 
उस दिन मैच के खत्म होने के बाद एक देश के लिए मैदान में हरे लिबास में हताशा ही हताशा बिखरी हुई थी । दर्शक दीर्घा में जो लोग चेहरे पर हरा रंग पुतवा कर आये थे वो मैच के खत्म होने के बाद हार का प्रतीक बन गये । हरे झंडे को लहराने वाले क्रिकेट फैन्स  में उस दिन मैच के बाद हरियाली को उठाने की ताकत खो चुके थे। 
पाकिस्तान की टीम जब आईसीसीस चैम्पियन्स ट्रॉफी 2013 का तीसरा मैच  हारी तो ऐसे लगा जैसे गब्बर सिंह चट्टान पर खड़े होकर  चीख -चीख कह अट्टहास कर रहा हो कि तीनों के तीनों हार गये हा.. हा... हा ...आये थे पांच मैंच खेलने और तीन में ही बाहर हो गये ...ये तो बहुत नाइंसाफी है । उस दिन मानों क्रूर गब्बर ये कह रहा हो कि जब पाकिस्तान के किसी गांव में बच्चा रोता है ना तो मां कहती है कि बेटा सो जा भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान की टीम को पीट रही है और फिर पाकिस्तान के कई इलाकों में लोग टीवी पर एक साथ लाठी, डंडे और गोलियों की बौछार के साथ बरस पड़ते हैं । ये सब कुछ होता है इंगलैंड के एजबेस्टन में और करीब 6000 से ज्यादा किलोमीटर दूर पाकिस्तान के गांवों की गलियों में मातम परस जाता है और इसके लिए जिम्मेदार था उसका परंपरागत प्रतिद्वंदी भारत ।  

दो हजार तेरह आईसीसी चैम्पियन्स ट्रॉफी में  पाकिस्तान की टीम के बल्लेबाज किसी एक मैच में  दौ सौ  रन बनाने को तरस गये थे । एक सौ सत्तर, एक सौ सठसठ और भारत के खिलाफ एक सौ पैसठ । पाकिस्तान के शूरवीरों की कहानी और गजब की थी ।  मोहम्मद हफीज ने कुल इकसठ गेंदों का सामना ही कर सके और उनका अधिकतम स्कोर था सत्ताइस रन और औसत करीब साढ़े बारह रन का ।  शोएब मलिक ने कुल तिरपन गेंदों का सामना किया और उनका औसत था साढ़े आठ रन का । उनके तीन बल्लेबाज ऐसे थे जो तीनों मैचों में मिलकर तीस का आंकड़ा पार नहीं कर सके थे। 
वहीं पंद्रह  जून दो हजार तेरह को एजबेस्टन में पाकिस्तान को रौंदने के बार भारत के सूरमा एक नया इतिहास लिखने की दिशा में बढ़ चुके थे । 2013 के उस टूर्नामेंट का जिक्र आते ही दुनिया के सामने शिखर धवन की शौर्य की कहानी याद आ जाती है ।  पांच मैचों में उन्होंने करीब 90 की औसत से दो शतक और एक अर्धशतक की मदद से 363 रन बनाये थे । शिखर मैन ऑफ द सीरीज रहे । टूर्नामेंट के टॉप फाइव बल्लेबाजों में रोहित शर्मा और विराट कोहली छाये रहे । इंगलैंड के विरूद्ध फायनल मैच में रवींद्र जडेजा ने हरफनमौला खेल दिखाकर मैन ऑफ द मैच का खिताब अपने नाम किया था । वो टूर्मामेंट के सबसे शीर्ष विकेट टेकिंग गेंदबाज भी रहे । 
बतौर टीम भारत के लिए 2013 की चैम्पियन्स ट्रॉफी कभी ना भूलने वाली ट्रॉफी थी इसमें भारत ने अपने सारे के सारे मैच जीते और महेंद्र सिंह धोनी भारत के ऐसे पहले ऐसे कप्तान बने , जिन्होंने भारत को आईसीसी के  टी-20 विश्व कप, विश्व कप और फिर  चैम्पियंस ट्रॉफ़ी का ख़िताब जितवाया । 
साफ जाहिर है इस बार  4 जून को एजबेस्टन में एक बार फिर जब क्रिकेट की दुनिया के सबसे बड़े रायवल आमने-सामने होंगे तो भारत के सिर पर उसके शौर्य का ताज होगा  और पाकिस्तान अपनी शर्मिंदगी के बोझ तले, बनावटी उत्साह के साथ अपने देश को अपने क्रिकेट पर यकीन दिलाने के लिए जूझ रहा होगा और हरे रंग में सिमटी हर चीज उस दिन सहमी-सहमी होगी । 

Sunday, May 21, 2017

राजेश कुमार को रेड इंक अवॉर्ड

मुंबई प्रेस क्लब देगा एक लाख रुपये और प्रशस्ति पत्र
देश के मूर्धन्य पत्रकारों के "रेड इंक अवॉर्ड"  क्लब में जब राजेश कुमार का नाम के शुमार होने का जानकारी मिली तो मेरे हर्ष की सीमा ना रही । मुझे ऐसे लगा जैसे मुझे ही कोई सम्मान मिला हो और फिर इस खुशी को जब मैंने अपने मित्रों से साझा किया वो भी खुश हुए बिना नहीं रह सके। ये सभी के लिए गर्व का एक विषय था जिसे हर कोई सेलब्रेट करना चाहता था। यही राजेश कुमार की कामयाबी का राज है पत्रकारिता जैसे पेशे में हर किसी के बीच समान रूप से लोकप्रियता हासिल करने वाले वो देश के बिरले पत्रकारों में शामिल हैं ।
राजेश से मेरी मुलाकात मुंबई ब्यूरो में आजतक में काम करने के दौरान हुई, उन्होंने बतौर क्राइम रिपोर्टर ज्वाइन किया था। मेरी जो भी मजबूरियां रही हो राजेश कुमार की पीटीसी शुरूआती दिनों में आये दिन नहीं लग पाती थी। लेकिन राजेश जैसे तेजतर्रार और ठोस रिपोर्टर का यूं मौन रह जाना मुझे सोचने पर मजबूर जरूर करता था । लेकिन राजेश ने धैर्य नहीं खोया ना ही कभी संयम । शायद एक पेशेवर पत्रकार के हुनर को राजेश ने अपनी शुरूआती दिनों में ही अपने आचरण का हिस्सा बना लिया था और यही वजह रही कि थोड़े ही दिनों में राजेश मुंबई ब्यूरो के लिए एक एसेट साबित होने लगे थे  ।
राजेश ने आजतक के मुंबई ब्यूरो में काम करते हुए जो छाप छोड़ी थी उससे प्रभावित होकर ही मैंने राजेश को अपने साथ इंडिया न्यूज लेकर जाने का मन बनाया। कुछ कारणों से मैं इंडिया न्यूज को अपनी सेवायें नहीं दे सका लेकिन राजेश ने वहां अपनी उपयोगिता को साबित किया। इंडिया न्यूज में राजेश कुमार के काम करने का दायरा देशव्यापी हो गया। उन्होंने चुनाव के लिए देश के भीतर से लेकर सरहद तक की रिपोर्टिंग की है । सर्जिकल स्ट्राइन के दौरान जान को जोखिम में डाल कर एलओसी से रिपोर्टिंग करने वालों पत्रकारों में राजेश कुमार का नाम शुमार है । राजेश देश के उन चुनिंदा पत्रकारों में हैं  जिन्होंने  डिफेंस की रिपोर्टिंग की बाकयदा ट्रेनिंग ली है ।
मुद्दा कोई भी हो राजेश ख़बर की नब्ज़ पकड़ते हैं । सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने को लेकर राजेश में एक जुनून है ।न्यूज के मामले उनमें एक ग़ज़ब की धुन है । लेकिन इससे अच्छी बात जो उन्हें एक बड़ा पत्रकार बनाती है वो है उनका संयमित और सुलझा आचरण। वो सनसनी पैदा करने वाली पत्रकारिता करने के बजाय खबर की गंभीरता के हिसाब से चलने में यकीन करते हैं ।
राजेश कुमार ने मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की सूखे की स्थिति को लेकर जो रिपोर्टिंग प्रस्तुत की वो आंखें खोलने वाली थी। शासन से लेकर प्रशासन तक सूखे की इस भयावहता को जानकर हैरान रह गया था। राकेश ने किसानों की केस स्टडी की। जमीनी  हकीकत को समझा और दुनिया को बताया कि बुंदेलखंड का सूखा सिर्फ एक इलाके की समस्या नहीं है ये आनेवाले कल की कई इलाकों समस्या है । समय रहते नहीं चेते तो देश के कई इलाके बुंदेलखंड जैसे सूखे से जूझने के लिए मजबूर हो जाएंगे । मानवता को झकझोर देनेवाली इस रिपोर्टिंग को मुंबई प्रेस क्लब ने सबसे आला दर्जे की रिपोर्टिंग माना और  राजेश को अपने सबसे प्रतिष्ठित "रेड इंक अवॉर्ड" से सम्मानित करने का फैसला लिया ।
अब आप सोच रहे होंगे जो शख्स पत्रकारिता के इतने व्यापक स्तर पर बारीक पकड़ रखता होगा वो जरूर कोई बेहद धीर-गंभीर व्यक्ति होगा, तो सुनिए काम के मामले राजेश जितने गंभीर हैं दोस्तों के बीच वो अपने भोलेपन के लिए उतने ही लोकप्रिय। राजेश की सादगी और भोलापन पत्रकारिता के पेश में उन्हें विश्वसनीय बनाती है । राजेश पत्रकारों की भीड़ में शामिल नहीं है वो पत्रकारों की भरोसेमंद टोली का हिस्सा है । मेरा यकीन मानिए मुंबई के एनसीपीए थियेटर में जब राजेश को "रेड इंक अवॉर्ड" से नवाजा जाएगा तो सम्मान खुद को गौरवान्वित महसूस करेगा। ये उपलब्धि राजेश की एक सिर्फ शुरुआत है आने वाले कल में पूरा आकाश पड़ा है उनके पत्रकारिता की  व्याख्या करने के लिए ।
शुभकामनाएं राजेश

Friday, May 19, 2017

छोटे से लक्षद्वीप से अमित शाह ने साधा बड़ा लक्ष्य

निगाहें लक्षद्वीप पर और निशाना केरल और मुस्लिम मतदाताओं पर!

ये बात राजनीति के  पंडितों को जरूर हैरान और परेशान कर रही होगी कि आखिर मौजूदा दौर की देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष, सत्ताधारी दल की पार्टी का अध्यक्ष, सबसे हाईप्रोफाइल अध्यक्ष अमित शाह,  देश के सबसे छोटे क्रेंद शासित प्रदेश लक्षद्वीप में आखिर तीन दिन से क्या कर रहे हैं? 
अमित शाह सोलह, सत्रह और अठारह मई को लक्षद्वीप में रहे । द्वार-द्वार जाकर उन्होंने लोगों से मुलाकात की। वो बूथ स्तर पर पहुंचे और पार्टी के कार्यकर्ताओं से मुलाकात की । लोगों से व्यक्तिगत तौर पर मिले। उनकी सभ्यता और संस्कृति में खुद को ढाला और उनके रंग में मगन दिखे अमित शाह।
अमित शाह स्थानीय मछुआरों के घर गये । बयालिस साल के अब्दुल खादेर के घर उन्होंने भोजन किया, वो एक अन्य मछुवारे अब्दुल रहमान के घऱ भी गये। बीजेपी नेता छिहत्तर साल की वरिष्ठ लोक गायिका पू से भी मुलाकात की।  गायिका वृद्धावस्था की बीमारियों के चलते बिस्तर पर हैं, शाह ने गायिका की बेटी से उनकी सेहत के बारे में बात की। 
इतने बड़े कद के राजनीतिक व्यक्ति का आत्मीयता से भरा ये आचरण मौजूदा दौर में विरला ही देखने को मिलता है। ये ठीक है कि इसके पीछे बीजेपी नेता की सोच सियासी ही रही होगी लेकिन स्थानीय लोगों के लिए उम्मीदों से भरी थी। स्थानीय उम्मीद थी चिकित्सकीय आवश्यकताओं की, उम्मीद शैक्षणिक ज़रूरतों की । क्योंकि यहां के लोग अपनी इन मूलभूत ज़रूरतों के लिए अब तक कोच्चि पर निर्भर हैं। 
लेकिन शाह ने अपनी यात्रा में यहां के लोगों को उम्मीद से कई गुना ज्यादा देने का भरोसा दे दिया।  उन्होंने वादा किया कि वो नवंबर के महीने में  प्रधानमंत्री को यहां लेकर आएंगे और कोशिश करेंगे के वो पूरे दिन यहां रहें । उन्होंने लक्षद्वीप की राजधानी को जल्द से जल्द स्मार्ट सिटी बदलने का वादा किया, इसके लिए हर वो चीज करना चाहते हैं जो यहां के लोगों के लिए बरसों से दूर की कौड़ी रही मसलन कोल्ड स्टोरेज सुविधा, पूरे द्वीप पर पीने के पानी की सुविधा, फोर-जी कनेक्टिविटी, मालवाहक जहाज उपलब्ध कराने का भरोसा भी उन्होंने दिया । यहीं नहीं उन्होंने विकास के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने की भी बात की।   
है ना सोचनेवाली बात है कि जिस केंद्र शासित प्रदेश में दस बसे हुए और सत्रह निर्जन द्वीप हैं। कोई 60 से 70 हजार की आबादी होगी लक्षद्वीप की। सिर्फ एक लोकसभा सीट है, वो भी रिजर्व। दो हजार चौदह के आम चुनाव तक यहां हमेशा से कांग्रेस ही जीतती रही सिर्फ एक बार यहां से जनतादल के प्रत्याशी को सफलता मिली है । वो भी ये एक  मुस्लिम बहुल इलाका है। वहां मोदी के इस सिपहसलार की ऐसी कड़ी मेहनत । जाहिर है शाह रेत से तेल निकाल कर ही दम लेंगे ।  
अब अगर बीजेपी अध्यक्ष खुद बूथ स्तर पर पहुंचकर सिर्फ एक लोकसभा सीट वाले इस क्रेंदशासित प्रदेश में अकेले मेहनत कर रहे हैं तो जाहिर है लक्षद्वीप भले छोटा हो लेकिन उनका लक्ष्य बहुत बड़ा है और वो लक्ष्य है लोकसभा चुनाव 2019, वो लक्ष्य है केरल, दक्षिण के इस राज्य में घुसना है तो कहीं पर पैर जमाना ही होगा । लक्ष्य है मुस्लिम मतदाता, इन्हें भाजपा से जोड़ना है तो कहीं से तो ठोस शुरूआत करनी होगी । लक्ष्य है आम आदमी, संदेश ये जाना चाहिए कि राज्य बड़ा हो या छोटा बीजेपी एक- एक व्यक्ति कि चिंता कर रही है । लक्ष्य है एक-एक सीट पर बीजेपी को स्थापित करना। ताकि देश का कोई भी कोना बीजेपी की जद में बाहर ना जाने पाये।  
बीजेपी प्रेसीडेंट अच्छे से जानते हैं कि जब दो हजार चौदह के मुकाबले दो हजार उन्नीस में उनके मतदाताओं की संख्या बढ़ जाएगी, उनके सांसदों की संख्या बढ़ जाएगी तो शाह और मोदी की ताकत भी कई गुना बढ़ जाएगी । और यही होगा इस सरकार की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण। अपने टिवट् पर अमित शाह ये बात उद्घाटित भी करते हैं कि अलग-अलग राज्य, अलग-अलग  लोग, अलग-अलग संस्कृतियां लेकिन बीजेपी के लिए वही जोश, वही सहयोग।

महल छोड़कर मोहब्बत की महारानी बनीं जापान की माको

प्यार के लिए राजमहल छोड़ना ही पड़ता है

इस देश में प्यार की ताकत देखिए फिल्म बाहुबली -2 ने अपनी प्रेम कहानी के दम पर सिर्फ 19 दिन में डेढ़ हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई कर ली । फिल्म का नायक अपनी प्रेमिका के लिए अपनी राजगद्दी को ठोकर मार देता है । सिर्फ अपने वचन के लिए ,अपने प्यार को अपना बनाने के लिए वो अपनी प्रेमिका के लिए अपने शत्रु का नौकर बनना स्वीकार कर लेता है । 
भारतीय फिल्मों में प्रेम का तड़का उतना ही पुराना है जितना इसका इतिहास । बाहुबली -2 की प्रेम कहानी में कोई नवीनता नहीं थी ऐसा हम सैकड़ो फिल्मों में पहले भी देख चुके हैं लेकिन शायद प्रेम में सुख की निरंतरता कुछ ऐसी है कि किरदारों के बदल जाने के साथ ही वही पुरानी कहानी, वही पुराने गीत वही पुरानी परिस्थितियां नये शब्दों के साथ नये सुरों से संवर कर एक नयी ताजगी का अहसास करा देती हैं। 
इधर भारत के लोग सिल्वर स्क्रीन पर बाहुबली को अपने देवसेना के लिए राजगद्दी छोड़ते देख रहे हैं तो उधर जापान में  रियल लाइफ में वहां की जनता ऐसा होते हुए देख रहे हैं ।  25 साल की जापान की राजकुमारी माको अपने प्यार को पाने के लिए शाही रूतबे को छोड़ रही है  क्योंकि जापान के राजघराने के नियमानुसार अगर शाही परिवार का कोई सदस्य किसी आम आदमी से शादी करता है तो उसे राजघराना छोड़ना होता है। 
माको की मुलाकात पांच साल पहले अपने साथ पढ़ने वाले केई से होती है और फिर दोनों के बीच मोहब्बत के फूल कुछ यूं गुलजार होते है कि राजकुमारी माको एक साधारण इंसान केई के लिए अपना महल छोड़ने का फैसला ले लेती हैं । राजकुमारी माको अपने शाही रुतबे को छोड़ने में पल भर की भी देरी नहीं करती ,उन्हें कुछ और सोचना नहीं पड़ता ।  
आखिर इस प्यार में ऐसा क्या हैं कि महल,  मिट्टी सा लगने लगता है,  शाही रुतबा, मोहब्बत के अहसासों के सामने बौना हो जाता है । एक प्यार को पाने के लिए सारा सुख, सारा वैभव, सारी विलासिता छोड़ने की धुन कैसे सवार हो जाती है ?  प्रेमियों ने तो वक्त पड़ने पर खुद के वजूद को छोड़ दिया है । इतिहास ऐसी प्रेमकहानियों से भरा पड़ा है कि जरूरत पड़ने पर आशिकों ने प्राण तक छोड़ दिया और बदले में प्रेम को पकड़ लिया । 
जिन संतों ने प्रेम को समझा वो कहते हैं कि "ढाई आखर प्रेम का पढ़े से पंडित होय",  किसी कवि ने समझा तो लिखा "मोहब्बत अहसासों की पावन सी कहानी है, कभी कबिरा दीवाना था  तो कभी मीरा दीवानी है"  इसे किसी शायर ने समझा तो लिखा ' 'ये तो एक आग का दरिया है और डूब के जाना है'   किसी दार्शनिक ने प्रेम का समझा तो कहा कि ये तो दो जिस्मों के एक जान होने का रसायन शास्त्र है ।
वाकई प्रेम के ऐसे अनुभव को पाने के मामले में जापान की राजकुमारी माको को खुशनसीब ही माना जाएगा  क्योंकि वो सिर्फ राजसी रूतबा छोड़ रही है और बदले में वो केई के दिल की रानी बन जाएगी । भारत में ये सुख तो राधा रानी को भी नहीं मिला । कृष्ण और राधा एक होने को तरसते रह गये । लेकिन द्वारका की गद्दी को संभालने के चक्कर में कृष्ण से वृंदावन की राधा की छूट गईं । 
 सीता ने राम को पाने के लिए नंगे पैर चौदह साल का वनवास झेला , सीता और राम की जोड़ी आदर्श तो बन गई लेकिन राजमहल की मर्यादा निभाने के लिए जंगल में जाकर पुत्रों को जनम देना पड़ा । मोहब्बत में शाही रुतबा जान ले लेता है राजस्थान की हाड़ा रानी ने अपना सिर काट पर राजा को  तश्तरी में भेज दिया ताकि मोहब्बत उनकी ताकत बन जाये और वो राजधर्म का पालन कर सकें । काश! औरंगजेब की बेटी जैबुन्निसा अपने प्रेमी , जो उनके पिता के सिपहसलार थे ,उस अकलाक खान के लिए महल छोड़ने का साहस जुटा पाती लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकीं और बाकी की जिंदगी अपने प्रेमी की कब्र पर लोटते हुए गुजार दी। 
तो प्यार में राजमहल की बाधा सदियों पुरानी है  जिन्होंने राजमहल का मोह पाला वो ताउम्र अकेले महल की दीवारों में सिर पीटते अपने प्रेमी की याद में घुट- घुट कर जिये । और जिन लोगों ने महल छोड़ दिया वो प्रेम को प्रमाणित कर सके । वाकई जापानी की 25 साल की राजकुमारी माको इतिहास के इन किरदारों से  बहुत ज्यादा खुशनसीब है जिन्होंने केई के प्यार के सामने राजमहल की परंपराओं को छोड़ दिया, ठुकरा दिया  । अब वो प्रेम की उस दुनिया में प्रवेश करने वाली है जिसमें वो सिर्फ दुनिया को देने की स्थिति में है । 
माको असली महारानी तो अब बनेंगी क्योंकि दुनिया प्यार की भूखी है, प्यार को तरस रही है  और माको अब इस मोहब्बत के सल्तनत की मल्लिका । 

Thursday, May 18, 2017

नये भारत के लिए नये लीडर्स की खोज शुरू, मोदी के सपनों को करेंगे साकार

 रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी, मुंबई (ठाणे) का अभिनव प्रयोग

मौजूदा दौर में जितने भी लीडर्स ने स्वयं को प्रमाणित किया है उनमें से ज्यादातर वो लोग है  जिन्होंने परिस्थितियों के अनुरूप खुद को तराशा, खुद संघर्ष किया, और खुद ही अपना लक्ष्य तय किया और फिर उस रास्ते पर बढ़ने के लिए तन, मन और धन सब कुछ झोंक दिया । लेकिन इसके बावजूद लाखों लोग ऐसे थे जिनमें प्रतिभा थी, क्षमता थी, उन्होंने अपना सर्वस्व दांव पर भी लगाया लेकिन वो ना तो खुद का भला कर सके, ना ही समाज और राष्ट्र को उनका लाभ मिल पाया । कहीं कुछ कमी रह गई और गाड़ी पटरी से उतर गई ।
वर्तमान दौर में भी अगर आप अपने चारों तरफ नजर दौड़ाएंगे तो पाएंगे कि कई लोग भाषण देने की कला में माहिर होते हैं लेकिन अध्ययन पूरा नहीं होता और वो सीमित हो कर रह जाते हैं । कई लोगों में समाज सेवा की भावना होती है, अच्छे समाजसेवी होते है लेकिन फिर भी दिशाहीन होते हैं उनका दायरा बड़ा ही नहीं हो पाता  और कई तो ऐसे होते है जिसने पास नेतृत्व की सारी खूबियां होती है लेकिन उनके पास संपर्क नहीं होता, जिसकी कमी के चलते  अवसर तैयार नहीं हो पाता और वो हताशा और कुंठा में जीने को मजबूर हो जाते हैं।
लेकिन अब ऐसा नहीं चलेगा क्योंकि भारत विश्व मंच पर हर क्षेत्र में अपनी मौजूदगी एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने को छटपटा रहा है । इसके लिए उसे देश में मौजूद मानव प्रतिभा का पूरा पूरा इस्तेमाल करना चाहता है ।  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति से स्पष्ट झलकता है वो भारत को दुनिया के शीर्ष देशों की श्रेणी में देखना चाहते हैं और उसके लिए उन्हें भविष्य में ऐसे लीडर्स की जरूरत होगी जिनके पास समझ को प्रमाणित करने का आचरण हो । पूरी तरह से  शिक्षित, स्किल्ड और अनुभव से भरे लोग चाहिए जिनमें विजन को हासिल करने का विश्वास हो ।
भारत के वर्तमान और भविष्य को इस मांग को मुंबई से संचालित संस्था रामभाऊ म्हालगी ने भांप लिया है और वो जुट गई है ऐसे युवाओं की खोज कर उनका निर्माण करने में । इस दिशा में  नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में देश के मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, आरएमपी संस्थान के अभिनव पाठ्यक्रम "पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम इन लीडरशिप, पॉलिटिक्स और गवर्नेंस" को लांच करते हुए खुद को  बेहद रोमांचित महसूस कर रहे थे । उन्होंने अपने युवा दिनों को याद करते हुए कहा कि काश इस तरह शिक्षा उन्हें भी मिल पाती । जावड़ेकर ने कहा कि अब राजनीति में वो दौर आएगा जब लोग आसानी से इस पर ऊंगली नहीं उठा पाएंगे । विश्वास की राजनीति का वातावरण और मजबूत होगा ।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ डेमोक्रेटिक लीडरशिप ( आईआईडीएल ) के तले शुरू हो   रहे इस अनूठे पाठ्यक्रम को  राज्यसभा सांसद और आरएमपी के वाइस चेयरमैन विनय सहस्त्रबुद्धे ने पूरी तरह से वैज्ञानिक सम्मत बताया । उन्होंने भरोसा दिलाया कि हम ऐसे युवाओं का निर्माण करने जा रहे हैं  जिनमें राजनीति से लेकर समाज के हर क्षेत्र में काम करने की विशेष दक्षता होगी । उनका व्यापक दृष्टिकोण भारत के आनेवाले को कल को समृद्ध करेगा ।
आरएमपी के कार्यकारी निदेशक रवींद्र साठे ने बातचीत के दौरान बताया कि पिछले 35 सालों से हम नेतृत्व साधना जैसे साप्ताहिक कार्यक्रमों के जरिए प्रतिभावान युवाओं को तराशने का काम कर रहे थे और उसके नतीजे से उत्साहित होकर ही हमने नौ महीने के व्यापक पाठ्यक्रम को युवाओं को देने का संकल्प लिया है, साठे को उम्मीद है कि काबिल लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में हमारा ये पाठ्यक्रम आशा का केंद्र साबित होगा ।
कोर्स के प्रमुख देवेंद्र का दावा है कि हमने "पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम इन लीडरशिप, पॉलिटिक्स और गवर्नेंस" को इस तरह से डिजाइन किया है कि युवा को जितना पुस्तकीय ज्ञान होगा उससे ज्यादा हम उसे व्यवहारिक बनाने पर जोर देंगे ।
कार्यक्रम में मौजूद देश के पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी , बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव पी मुरलीधर राव और जेएनयू की प्रोफेसर अमिता सिंह ने भी संस्थान के इस प्रयास की सराहना कर बधाई दी ।
तो जिन युवाओं को अपने विज़न को व्यहारिकता में अपनाने की ललक है और वो इस पाठ्यक्रम को अपनाना चाहते हैं तो आईआईडील के इस बेवसाइट  - www.iidl.org.in;  आरएमपी वेबसाइट - www.rmponweb.org पर जाकर विस्तृत जानकारी ले सकते हैं ।

Monday, May 8, 2017

क्या अब गोरखपुर की पुलिस अधिकारी चारू निगम पर गाज गिरेगी?

कब तक खुलकर बोलने वालों पर बर्खास्तगी और निलंबन की तलवार लटकती रहेगी?

सवाल ये है कि इस देश में सच को कहने का मैकेनिज्म क्या है ? फिर सच को सुनने का तरीका क्या है? फिर सच से सच को समाधान में कैसे बदला जाये? जिसमें न्याय की भावना निहित हो , न्याय ऐसा हो जिसमें हर पक्ष को तृप्ति मिले । मेरी समझ से तो उसका एक ही सिद्धांत है, एक ही समाधान है और वो है हर हाल में सच को परिभाषित और प्रकाशित किया जाय ।
हाल ही की सिर्फ तीन घटनाओं से हम इस देश में सत्य और न्याय की गति, स्थिति और परिणाम को जानने की कोशिश करते हैं । हाल ही का एक  मामला है बीएसफ के तेजबहादुर का,  फेसबुक  पर खराब खाने की शिकायत  लिखी तो नौकरी चली गई । एक और मामला है छत्तीसगढ़ की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे का, फेसबुक पर आदिवासियों पर हो रहे पुलिसिया जुल्म की दास्तान लिखी और वो नौकरी से निलंबित हो गईं ।
अब तीसरा मामला है गोरखपुर की अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चारू निगम का । स्थानीय  विधायक से सरेआम बेज्जती झेलने के बाद चारू ने फेसबुक पर लिखा है कि "मेरे आँसुओं को मेरी कमज़ोरी न समझना, कठोरता से नहीं कोमलता से अश्क झलक गए. महिला अधिकारी हूँ, ये तुम्हारा गुरूर न देख पाएगा, सच्चाई में है ज़ोर इतना अपना रंग दिखलाएगा." इस मामले में स्थिति और गति के बाद परिणाम की प्रतीक्षा है ।
पुलिस अधिकारी चारू निगम और स्थानीय विधायक के बीच हुई बातचीत और गर्मा-गरमी के वीडियो से एक बात तो स्पष्ट हो गईं कि विधायक जी नेतागीरी कर रहे थे और चारू अपना काम ।  कानून व्यवस्था से बेपरवाह हो विधायकजी सिर्फ और सिर्फ अपनी तेरतर्रार छवि का पोषण कर रहे थे । सीधे- सीधे समझ में आ रहा था कि कैसे विधायक, पुलिस प्रशासन के काम में दखलंदाजी करते हैं  और इस हद तक करते हैं कि पुलिस की आंखों से आंसू निकल पड़ते हैं ।
अब समाज, राजनीति और मीडिया, पुलिस- प्रशासन के आंसुओं का हिसाब लगाने बैठती है,  आंसुओं के पीछे के सच को खोजती है तो प्रथम दृष्टया यही समझ में आता है कि लोकतंत्र में जब तक नेता तमाशा नहीं खड़ा करेगा तब तक उसकी तथाकथित हैसियत ही स्थापित नहीं होगी।
भारत जैसे  लोकतांत्रिक देश में  नेता इस बात का फायदा उठाते हैं कि भीड़ अगर आपके साथ है तो आप सीधे -सीधे चौराहे में खड़े होकर  संविधान को चुनौती दीजिए, कानून झाड़िये क्योंकि विधानसभा और संसद के सत्र तो आप लोग स्थगन की भेंट चढ़ा आते हैं ।  फिर बीच सड़क पर खड़े होकर पुलिस -प्रशासन को झुकने के लिए मजबूर कीजिए । फिर चाहे  हालात को बिगाड़िये, चाहे बनाइये,  बस कैसे भी करके सुबह के अखबार में सुर्खियां हो जाइये ।
दिलचस्प ये है कि जिस कार्यपालिका को आप जलील कर रहे हैं उसके आंसू निकाल रहे हैं दरअसल को वो व्यवस्था आप से ही निकली है लेकिन समस्या ये है कि आप विधायक बन कर खुश नहीं है आप प्रशासन भी बनना चाहते हैं । तभी तो विधायकजी  गोरखपुर में बीच-बाजार में चौधरी बन बैठे ।
लेकिन विधायक जी उस महिला पुलिस अधिकारी ने अपने आंसुओं का हिसाब मांगा है और सीधे- सीधे आपके गुरूर को ललकार है वो भी सच की दुहाई देकर । अब आपके समर्थक आपको उकसायेंगे कि साहब!  चारू निगम को संस्पेंड नहीं करवाया तो आपकी साख पर बट्टा लगना तय है  और एक व्यक्ति की व्यक्तिगत साख के चक्कर में विधायिका और कार्यपालिका दोनों की साख दिन -ब -दिन गिरती जा रही है।  यही इस देश में परंपरा सी स्थापित हो गई हैं ।
अगर हमारे पास सच को जानने, समझने का व्यवहारिक मैकेनिज्म होता तो छत्तीसगढ़ की डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे को संस्पेंड करने की जरूरत नहीं पड़ती । वर्षा डोंगरे ने तो वहीं लिखा जो उन्होंने महसूस किया। उनके मुताबिक उन्होंने आदिवासियों के साथ पुलिस की अमानवीयत को खोलकर रख दिया । अगर वो सच कह रही है तो उसके मूल में जाने की जरूरत थी लेकिन सिस्टम का सारा फोकस समाधान से ज्यादा पुलिस की साख बचाने का का था ।  क्या वर्षा के सस्पेंशन से समस्या खत्म हो गईं ?
ठीक इसी तरह सीमा सुरक्षा बल के जवान तेजबहादुर की शिकायत में हमने शायद समाधान नहीं खोजा बल्कि सारा ध्यान सीमा सुरक्षा बल की साख को बचाने में लगा दिया । समाधान में गये होते तो तेजबहादुर की नौकरी शायद नहीं जाती ।
लेकिन सवाल ये है कि हम कब तक फेसबुक पर बोलते चारू, वर्षा और तेजबहादुर जैसे लोगों को संस्पेंड और बर्खास्तगी के दायरे में लाते रहेंगे ? अगर किसी दिन ये आंदोलन बन गया तो ..। अब भी वक्त है संभल जाइये फेसबुक पर उठती इन आवाजों को नज़रअंदाज मत करिए, इनकी बातों को समझिए औऱ इनका समाधान प्रस्तुत करिए वर्ना किसी दिन आप इस भीड़तंत्र में अपनी ही पैदा की हुई अराजकता का शिकार बन सकते हैं ।
http://tz.ucweb.com/5_Dq2B - (यूसी में प्रकाशित लिंक )

Sunday, May 7, 2017

केजरीवाल एक आंदोलन के कातिल साबित होकर ना रह जाएं!



मुझे लगता है भारत के राजनीतिक इतिहास में केजरीवाल एक ऐसा नाम होंगे जिसमें ना तो उनके शौर्य का वर्णन होगा, ना उनकी असफलता का  बल्कि उन्हें जाना जाएगा सत्ता हासिल करने के लिए अपनाये उनके मैकेनिज्म के लिए । लोकतंत्र पर  शोध करनेवालों के लिए दिल्ली की केजरीवाल सरकार से वो सूत्र निकलते हैं जिससे सत्ता हथियाने के सारे शॉर्टकट मौजूद  हैं ।

अन्ना और केजरीवाल के आंदोलन से एक बात तो साफ हो गई थी इस देश के लोग राजनीति में ईमानदारी चाहते थे  । प्रशासन में पारदर्शिता चाहते थे ।  जिस आदर्श को अब तक लोगों ने किस्से कहानियों में पढ़ा था उस आदर्श को सच में बदलते हुए देखने का लोगों में जुनून पैदा हो गया था ।

अन्ना और केजरीवाल  आंदोलन से एक बात और साफ हो गई थी कि भारत की राजनीति में शुचिता स्कोप अभी बाकी था । बिना धन बल के, बिना बाहुबल के भी आप सरकार बना सकते हैं ।  बस एक बार लोगों को आपने यकीन दिला दिया कि आप सच्चे हो, और इस सच्चाई को आपने स्वयं के साथ प्रमाणित कर दिया तो  लोगों को तख्ता पलटते देर नहीं लगेगी । लोकतंत्र की ताकत का प्रतीक बन कर उभरी थी अरविंद केजरीवाल की सरकार ।

आज केजरीवाल की सरकार लोकपाल की बात भी नहीं करती,  लेकिन जनता के दिल में जगह लोकपाल ने ही बनाई थी । लोग  लोकपाल की टोपी पहन कर सड़क पर उतरे थे  । बच्चे, बूढ़े, जवान, नवयुवतियां, घरेलू और कामकाजी महिलाए,  पहली बार दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर का आदमी, नौकरीपेशा लोग, ऑटो रिक्शा, रेहड़ी चलाने वाले लोग , जाति-पाति को पीछे छोड़ कर उतर गये थे सड़क पर । मानो शुचिता की बारात सजी हो ।  ऐसा लगा कि स्थापित राजनीतिक दलों की सोशल इंजीनियरिंग वाली राजनीति का युग पीछे छूट जाएगा ।

क्या आंदोलन था, अन्ना गांधी जैसे लगने लगे थे, केजरीवाल नेहरू जैसे । आजादी के बाद गांधी कांग्रेस का पैकअप चाहते थे क्योंकि आजादी मकसद पूरा हो गया था । लेकिन नेहरूजी और उनके साथियों ने ऐसा होने नहीं दिया ।  उसी तरह अन्ना देश में शुचिता के आने तक आंदोलन की राजनीति को आगे रखना चाहते थे लेकिन केजरीवाल और उनके समर्थकों ने ऐसा होने नहीं दिया ।

आंदोलन का लोहा गर्म था केजरीवाल ने मार दिया हथौड़ा । लोकपाल को पीछे छोड़ा और एक सत्याग्रही से रातोंरात सरकार बन बन बैठे । अब तक हमने देखा था कि कैसे भोगवादी दुनिया में , बाजारवादी दुनिया  में सपने बेचें जाते है लेकिन पहली बार लोकतंत्र में ईमानदारी, शुचिता, पारदर्शिता और लोकपाल का सपना  दिखाया गया और सपने का विज्ञापन  सुपरहिट साबित हुआ ।

" ना पैसा लगा ना कौड़ी,  केजरीवाल और उनके साथी चढ़ गये सत्ता की घोड़ी "

लेकिन दो साल में वो सब हो गया जिसके लिए राजनीति जानी जाती है । कलंक भी लगा । कद भी घटा । विश्वसनीयता चली गई । अपने पराये हो गये । पद, प्रतिष्ठा और अहंकार बड़े हो गये जिसने भी टांग अड़ाने की कोशिश की उसे ही रास्ते से उड़ा दिया गया ये भी नहीं देखा कि कभी ये आपके सपनों का हिस्सा था । सपनों के प्लानर थे । सपने को सच करने के मैकेनिज्म में आपके भागीदार थे ।

भागीदार बिखरने लगे तो वो बिलबिलाने लगे । वो बिलबिलाने लगे तो "आप"की पोल खुलने लगी । पोल खुलने लगी तो "आप"की साख पे पलीता लगने लगा । पलीता लगने लगा तो पब्लिक को आप से ज्यादा खुद पर  गुस्सा आने लगा । गुस्सा आया तो दिल्ली के एमसीडी के नतीजे आये और आपको "आप"की हैसियत बता दी ।

लोगों समझ गये कि सादगी से भरा आपका पहनावा, शालीनता से भरा आपका आचरण, पारदर्शिता की ताल ठोंकनेवाली आपकी बातें सब एक टूल थे , वो सब एक दिखावा था। लोग अब कहने लगे है कि सच्चाई का, ईमानदारी का, शुचिता का मायाजाल बुना गया था  सिर्फ मतदाताओं को झांसा देने के लिए  ।

अगर आपका लक्ष्य नेक होता,  एक होता तो साथियों में मतभेद की कोई गुंजाइश ही नहीं थी । अगर जनता की भलाई ही सर्वोपरि होती तो सुप्रीमो बनने का गुरूर परिलक्षित ही नहीं होता ।

केजरीवाल सरकार के दो साल हो गये और दो साल में आप वो छाप नहीं छोड़ सके जो अन्ना के साथ रहकर आपने स्थापित किया था । जी- जान से काम करने की बजाय आप कमियां गिनाते रह गये । आप सिर्फ शिकायत खोजने में लगे रहे ।  उंगलिया उठाते रह गये । सारी उर्जा आपने दिल्ली की जनता की भलाई के बजाय अपने राजनीति कद को बड़ा बनाने में लगा दिया वो भी सामनेवाले को नीचा दिखाकर । कभी ममता के साथ, तो कभी लालू के साथ ,  कभी पंजाब का चक्कर और कभी गोवा की सैर ।

 ना खुदा मिला ना बिसाले सनम । लगता है अब "आप" हो गये खतम

ठीक है आपने जो किया सो किया अपने राजनीतिक संस्कारों के हिसाब से किया । लेकिन इतना जरूर बता दिया कि देश में ईमानदारी का स्कोप अभी बाकी है । लोग राजनीति में शुचिता चाहते हैं । लोग सत्य, प्रेम और न्याय को प्रमाणित होते देखना चाहते हैं ।

"आप"ने भले ही उस जनआंदोलन का गला घोंट दिया हो, उस परिवर्तन की आंधी का कत्ल कर दिया हो  लेकिन उम्मीद अभी बाकी है क्योंकि  भारत की जनता को अभी भी उसका इंतजार है जिसकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं होगा और वो भारत के  लोकतंत्र में एक दिन लोकपाल को साकार जरूर करेगा ।



Friday, May 5, 2017

एंटी -रोमियो अभियान में लगे पुलिस की हकीकत को तो जान लीजिए योगीजी!

एक कांस्टेबल की जबानी यूपी पुलिस की कहानी                                                                                                                                                                        

उत्तर प्रदेश में योगी राज है, माहौल ऐसा बन गया है जैसे कानून का राज लौट आया हो,  यूपी में अब चोरी, लूटपाट छेड़खानी जैसी घटनाएं बंद हो जाएंगी । इस सिलसिले में मेरी यूपी पुलिस के एक अधिकारी से बात हुई तो उन्होंने बिना किसी लाग -लपेट के साफ- साफ कह दिया चाहे कोई आ जाए जैसा चलता आया था वैसा ही चलता रहेगा ।

उस पुलिस अधिकारी ने साफ -साफ कहा कि किसी सरकार में इतनी हैसियत नहीं कि अव्यवस्था के इस गठजोड़ का खात्मा कर दे । अधिकतम अपराध नेता और पुलिस की सहमति से ही होते रहे हैं ।  हां! अगर सरकार चाहती है तो अधिकतम 8 से 10 प्रतिशत मामला सुधरा हुआ बाहर से लगेगा  लेकिन भीतर से जैसा था वैसा ही रहेगा ।

यूपी में क्यों नहीं सुधर सकता सिस्टम इस उत्सुकता में मेरी मुलाकात हाल ही में वहां के एक ऐसे कांस्टेबल से हुई जिसने पुलिस के आला -अधिकारियों की नाक में दम कर रखा हैं । उस शख्स की बातें सुनी तो लगा जैसे हाथी के नाक के चींटी घुस गई हो । उस शख्स से हुई पहली बातचीत का ब्यौरा मैं आपके सामने रख रहा हूं जिसे सुनकर आप भी कहेंगे ये कांस्टेबल तो किसी भी दिन मारा जाएगा । 

कांस्टेबल का नाम है सुशील कौशिक । इस वक्त ये कांस्टेबल क्षेत्राधिकारी औद्योगिक नोएडा में पदस्थ है । इसकी शिक्षा एमए और एलएलएम है । कौशिक की कहानी करवट लेती है 2005 से जब ये नोएडा 49 थाने में पदस्थ था । कौशिक ने देखा कि कैसे वहां के  पुलिसवाले बांग्लादेशी मजदूरों के उठा लाते हैं और उन्हें तब तक परेशान करते हैं जब तक इन्हें लानेवाला ठेकेदार पुलिस को एक निश्चित रकम नहीं दे देता । 

इस कांस्टेबल ने वहां चल रहे कबाड़ी और खाकी के गठजोड़ को भी उजागर किया । जिसमें कबाड़ी निर्माणाधीण बिल्डिंगों के बिल्डिंग मटेरियल को चुराते थे और उसमें पुलिस को एक निश्चत हिस्सा मिलता था । जब कौशिक ने इसके लिए  जिम्मेदार अधिकारियों की नामजद शिकायत दर्ज करवाई तो बजाय आरोपियों की जांच होने के कौशिक का ही ट्रांसफर नोएडा से सीधे झांसी कर दिया गया ।  

साल 2005 -06 में झांसी में रहते हुए सुशील कौशिक ने पाया कि कैसे चुनाव ड्यूटी में लगे पुलिस कर्मचारियों का पैसा आला अधिकारी डकार रहे हैं । इस बार कौशिक ने पूरी जानकारी आरटीआई से हासिल की और बाकायदा यूपी होम सेक्रेटरी और डीजीपी से की । धारा 156-3 के तहत मामले को लेकर कोर्ट में भी गये । आईजी को इस मामले में जांच करनी पड़ी और मामला आज भी एंटी करप्शन कोर्ट में चल रहा है । लेकिन कांस्टेबल कौशिक को झांसी के रीलीव करके बुलंदशहर भेज दिया गया ।

साल 2007 में कौशिक ने   बुलंदशहर में फिर आरटीआई लगाई कि कैसे चुनाव में लगे पुलिसवालों का पैसा अधिकारी डकार रहे हैं । मामले की जांच शुरु हुई लेकिन गाज गिरी कांस्टेबल पर । कौशिक का तबादला बुलंदशहर से बागपत हो गया । बागपत में कौशिक ने कुछ ऐसा किया कि पूरी यूपी पुलिस हिल गई । 

कौशिक ने देखा पुलिस कर्मचारियों के वेतन से बिना उनकी स्वीकृति के 50 रुपये कटता था और उसका इस्तेमाल होता था एसएसपी आवास में लगे जनरेटरों में तेल डालने के लिए । यहां उन्होंने पाया कि सालों से एक परंपरा बन गई थी कि पुलिस कर्मचारियों की सैलेरी से बिना उनकी स्वीकृति के पुलिस कल्याण, डिसट्रिक्ट एमीनिटी फंड, शिक्षा, खेलकूद और मनोरंजन के नाम पर 30 रुपये काट लिया जाता था । 

जब कौशिक ने इस बात पर आपत्ति की तो उनको लाइन हाजिर कर दिया गया  और अधिकारी ने उनकी गोपनीय रिपोर्ट तैयार कर उन्हें बागपत से फैजाबाद ट्रांसफर कर दिया । इस मामले को लेकर कांस्टेबल ने जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो राज्य के 5 आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज हो गया । 

ये कांस्टेबल जहां जाता वहीं के अधिकारियों की कलई खोलने में लग जाता था । साल 2010 में इसने फैजाबाद के एसपी के खिलाफ जब मोर्चा खोला तो हमेशा की तरह इनका ट्रांसफर फैजाबाद से नोएडा कर दिया गया । नोएडा आकर कांस्टेबल ने देखा कि मामूली सैलरी पाने वाले पुलिसवालों ने करोड़ों रुपये की बेनामी संपत्ति बना रखी है। कौशिक ने इसे उजागर करने के लिए आरटीआई लगा रखी है और जवाब का इंतजार कर रहे हैं ।

कांस्टेबल कौशिक ने अपने स्तर पर भी ,अपना पैसा खर्च करके उन पुलिसवालों की संपत्ति का ब्यौरा इकहट्टा कर रहे हैं जिनकी करोड़ों रुपयों की बेनामी संपत्ति है  और उन्हें इंतजार है अगले ट्रांसफर का । 

योगीराज में कौशिक का अगला ट्रांसफर ये तय करेगा कि प्रदेश में क्या में राज बदला है या फिर व्यवस्था भी बदली है ? योगी उस पुलिस से भ्रष्ट्राचार को साधने में ताकत लगा रहे है जो खुद उसका हिस्सा मालूम पड़ रहा है । कांस्टेबल कौशिक ने पुलिस के भीतर के कई ऐसे भन्नादेने वाले खुलासे किये जिसके सामने  पेशेवर अपराधी शरीफ लगता है । कांस्टेबल का कहना है कि जिस पुलिस के दम पर योगीजी एंटी रोमियो अभियान चला रहे हैं पहले उन पुलिसवालों की हकीकत तो पता कर लेते ।    

कुल जमा कहानी इतनी ही मालूम पड़ती है कि सरकारें आएंगी जाएंगी लेकिन अव्यवस्था का गठजोड़ अपने पूरी गुंजाइश के साथ फलता- फूलता रहेगा और सुशील कौशिक जैसे कांस्टेबलों का ट्रांसफर होता रहेगा ।     

 ( ये लेख कांस्टेबल सुशील कौशिक से बातचीत के आधार पर लिखा गया है )  

Thursday, May 4, 2017

भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिंग की धरती के खत्म होने की चेतावनी को गंभीरता से लें

धरती बचाने के लिए मानव जाति को मानव का आविष्कार करना होगा 

धरती को बचाने की एकमात्र उम्मीद है भारत का मानव व्यवहार दर्शन और विज्ञान 


मानव जाति अगर मानव को खोज ले तो दूसरी धऱती खोजने की जरूर ही नहीं पड़ेगी। अगर मानव अपने मौलिक आचरण के साथ मिल गया तो सारी समस्याओं का समाधान मिल जाएगा। सारे सुखों की खोज हो जाएगी। लेकिन उसके लिए दुनिया के तमाम विद्वानों को अपने अहंकार को किनारे रखकर भारत की परंपराओं में शोध करना होगा।
जिस दिन ताकतवर देशों का अहंकार टूटेगा उस दिन ये धरती स्वर्ग हो जाएगी। मानव देवता हो जाएगा और पूरा विश्व परिवार हो जाएगा। भारत की परंपरा हजारों सालों से वसुधैव कुटुंबकम की ओर इशारा कर रही है लेकिन दुर्भाग्य कि विज्ञान अपने अधूरेपन से उबर ही नहीं पा रहा है।
भारत का वैदिक दर्शन, भारत का परंपरागत ज्ञान और विज्ञान आज इसलिए प्रासंगिक हो गया है क्योंकि दुनिया के महान भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिंग ने पूरी मानवजाति को आगाह करते हुए कहा कि खुद को बचाए रखने के लिए सभी मानव 100 साल के भीतर पृथ्वी को छोड़कर अन्य किसी ग्रह पर चले जाएं। उन्होंने ये बात जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी और उल्का पिडों के टकराव से पैदा होने वाले हालात से बचने के लिए कही है।
हॉकिंग की इस बात से ये स्पष्ट हो गया कि जो विज्ञान मानव को सुख नहीं दे सकता, जिस विज्ञान में जलवायु परिवर्तन, बढ़ती आबादी और उल्का पिंडों के टकराव को रोकने की हैसियत ही नहीं हैं उसे कम के कम अब ये स्वीकार कर लेना चाहिए कि प्रकृति को, अस्तित्व को जानने की उसकी समझ ही विकसित नहीं हो सकी है।
बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री ‘एक्पेडिशन न्यू अर्थ’ में स्टीफन हॉकिंग और उनके स्टूडेंट क्रिस्टोफ गलफर्ड बाहरी दुनिया में मानव जाति के लिए जीवन की तलाश करते नजर आएंगे। पिछले महीने भी हॉकिंग ने चेताया था कि तकनीकी विकास के साथ मिलकर मानव की आक्रामकता ज्यादा खतरनाक हो गई है। यही प्रवृति परमाणु या जैविक युद्ध के जरिए हम सबका विनाश कर सकती है। एक वैश्विक सरकार ही हमें इससे बचा सकती है। मानव बतौर प्रजाति जीवित रहने की योग्यता खो सकता है।
हॉकिंग की सोच अभी वैश्विक सरकार तक ही पहुंची है लेकिन भारत की परंपरा हजारों सालों से वैश्विक परिवार को ओर इशाऱा कर रही है। भारत का मानव व्यवहार दर्शन कहता है कि जब तक मानव खुद का अध्ययन नहीं करेगा, खुद को नहीं जानेगा वो दुनिया के किसी भी ज्ञान को पूर्णता के साथ ग्रहण ही नहीं कर सकता है।
इशोपनिषद कहता है कि मानव इस धरती पर सबसे पूर्ण और महत्वपूर्ण इकाई है और इस पूर्णता को समझकर, पूर्णता में शामिल हुए बिना उसकी ये यात्रा पूरी नहीं हो सकती।
“पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥”
इस दर्शन को विज्ञान की दृष्टि से जानने की जरूरत है।
भारत का दर्शन कहता है मानव शरीर को अपनी जरूरतों के लिए बहुत ज्यादा सुविधा और साधनों की जरूरत नहीं है, लेकिन भौतिक विज्ञान ने पूरी ताकत सुविधा और साधनों को जुटाने में लगा दी, विज्ञान ने अपनी सबसे बड़ी ताकत  बाजारवाद में झोंक रखी है और इस लक्ष्यविहीन और दिशाविहीन प्रगति ने हमें ग्लोबल वार्मिंग की ओर धकेल दिया।
जो यूरेनियम धरती में हजारों फुट गहरे दबा था, जिसकी रेडियो एक्टिवता का असर ये है कि मानव जाति की नस्ल ही खत्म हो जाये, उसे दुनिया के तथाकथित समृद्ध और ताकतवर देशों ने परमाणु बम के तौर पर सजा रखा है। लेकिन उन देशों की इतनी हैसियत नहीं कि वो उसका इस्तेमाल कर सकें, क्योंकि उन्हें पता है जो करेगा वो मरेगा।
खुद पर इतराने वाला भौतिक विज्ञान अब मान रहा है कि धरती खतरे में है, मानव जाति खतरे में हैं। लेकिन भारत का दर्शन कहता है कि ना ये धरती खत्‍म होगी, ना अस्तित्व खत्म होगा। जिस अस्तित्व ने इसे बनाया है, उसे इस अस्तित्व को संभालने का हुनर भी आता है।
लेकिन ये अस्तित्व अपने तरीके से इस धरती को बचाये, इससे अच्छा होगा कि उससे पहले मानव अपनी भूमिका जान ले, समझ ले और सुधर जाये। विज्ञान को प्रकृति के अध्ययन में इस्तेमाल करे ना कि उसके विनाश में। हॉकिंग की चेतावनी को हल्के में लेने की गलती ना करें।
इस लेख को मध्यमत ने भी प्रकाशित किया - (http://www.madhyamat.com/we-have-to-reinvent-the-humanbeing-to-save-earth/)

Monday, April 24, 2017

शिक्षा के निजीकरण, व्यवसायीकरण पर लगाम लगानी होगी

शिक्षा देना सरकार और समाज की जिम्मेदारी है 

राजधानी दिल्ली के बदलते सरकारी स्कूलों की इनसाइड स्टोरी 

दिल्ली के शिक्षामंत्री मनीष सिसौदिया मंत्रालय संभालने के अपने शुरूआती दिनों में एक दिन एक विद्यालय के औचक दौरे पर गये । वहां उन्होंने देखा कि टीचर बच्चों को गांधीजी का सफाई सिद्दांत पढ़ा रही हैं  लेकिन जब कमरे में चारो तरफ नज़र दौड़ाई तो उन्होंने देखा छत मकड़ी के जालों से अटा पड़ा है, दीवारे गंदी है, कुर्सी -टेबल पर धूल जमी है और फर्श साफ नहीं है । उन्होंने फौरन शिक्षक से पूछा क्यों पढ़ा रही हैं गांधी का सफाई का सिद्धांत? तो उस टीचर के पास सिवाय इस बात के कोई जवाब नहीं था कि ये पाठ्यक्रम का हिस्सा है इसलिए पढ़ा रही हूं । और बच्चों ने कह दिया कि जो टीचर पढ़ाती हैं हम तो वहीं पढ़ते हैं । 
कुल मिलाकर शिक्षामंत्री को ये समझ आ गया कि ना टीचर को पता है कि वो क्यों पढ़ा रहा है? और क्या पढ़ा रहा है?  और ना छात्रों को पता है कि वो क्यों पढ़ रहे हैं । इस तरह उन्होंने दिल्ली के स्कूलों का हाल जाना ।
दिल्ली के कई पिछड़े इलाकों में सरकारी स्कूलों का हाल तो इससे भी बुरा था । वहां अभिभावक और पैरेंट्स के बीच कोई संवाद ही नहीं है । शिक्षक दो घंटे स्कूल जाकर खुद को ऐसे जाहिर करता था जैसे वो उस विद्यालय पर एहसान कर रहा हो और रोज-मर्रा की रोजी-रोटी के लिए परेशान अभिभावक को ये लगता था कि कम से कम उसकी संतान स्कूल तो जा रही है ।
इन दो उदाहरणों से आप समझ लीजिए दिल्ली के करीब 90 हजार सरकारी शिक्षक,  करीब ढाईलाख से ज्यादा छात्रों का जीवन और उनसे जुड़े परिवार और परिवार से जुड़ा समाज  किस दिशा में जा रहा था।   सिसौदिया समझ गये कि सालों से जिस  वैल्यू ऐजुकेशन  की बात हो रही है वो पूरी तरह से फेल है और उन्होंने वैल्यू ऑफ ऐजुकेशन को ही अपना लक्ष्य बना लिया ।
शिक्षामंत्री ने सुधार की प्रक्रिया अफसरों से शुरू की । मंत्रालय का कार्यभार संभालने के महीनेभर में वो करीब पैंतीस जिम्मेदार अफसरों को लेकर वो रायपुर में ऐसी जगह पहुंचे जहां मानव दर्शन को पढ़ाया जाता है,  जहां मानवीकरण पर बात होती । जहां मनुष्य जीवन के गूढ़ रहस्यों पर नित शोध होता है । सिसौदिया अपने अफसरों के साथ वहां सात दिन डटे रहे  और इस दौरान ना कुछ बोलना पड़ा, ना कहना पड़ा,  अफसर समझ गये कि मंत्री क्या चाहता है ।
अस्तित्व में मानव की महती भूमिका को समझने के बाद दिल्ली के  अफसरों में एक नया जोश था। इसके बाद  दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में शिक्षकों को मानव शिक्षा का महत्व बताने के लिए महाशिविर किया गया जिसके चमत्कारी नतीजे सामने आये और इसके साथ ही ऐसे शिक्षकों और प्राचार्यों की पहचान शुरू की गई जो वाकई दिल से शिक्षा से जुड़े हुए थे । जिनके पास शिक्षा को लेकर एक विजन था । वो इस काम में अपना जी जान लगाना चाहते थे ।
करीब 54 प्राचार्यों के विजन को सिसौदिया के मंत्रालय ने स्वीकृति दी । उन प्राचार्यों ने जो सुविधा मांगी उन्हें वो सुविधा प्रदान की गई  । कर्मचारी से लेकर बजट तक,  बिल्डिंग से लेकर उसके देखभाल की जिम्मेदारी तक, सब प्राचार्यों के मन का किया गया औऱ बदले में उनसे सिर्फ यही अपेक्षा की गई कि स्कूल और बच्चों को लेकर जो उनका सपना है वो पूरा होना चाहिए । शिक्षकों के कहने पर भारीभरकम सलेबस में 25 प्रतिशत तक की कटौती भी कर दी गई । अब वो प्राचार्य और उनकी टीम नतीजे देने में जुट गई है ।
यही नहीं दिल्ली के टीचर्स को जनसंख्या और तमाम दूसरे सरकारी कामों से दूर रखने का फैसला लिया गया और तय किया गया कि उनसे अधिकतम शिक्षा का ही काम लिया जाएगा ।
दिल्ली के पिछड़े तबके के इलाकों से लेकर भगभग हर सरकारी स्कूलों में शिक्षक और अभिभावक सम्मेलन शुरू हुए । शिक्षकों और अभिभावकों में रिश्ता बना, विश्वास जगा और अब दिल्ली के सरकारी स्कूलों में शिक्षक और अभिभावक सम्मेलन उत्सव का रूप ले चुका है ।
इसी  का नतीजा है कि दिल्ली के कई स्कूलों और मोहल्लों में रीडिंग बेला , रीडिंग कैम्पेन शुरू हो गया है जहां बच्चों को जोर- जोर से किताबें पढ़ना सिखाया जाता है । ये करना इसलिए जरूरी था क्योंकि एक एनजीओं की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चे सातवीं- आठवीं की कक्षाओं में पहुंच तो गये थे लेकिन कई बच्चों को दूसरी कक्षा की किताब भी पढ़नी नहीं आती थी । अब ये भरोसा जग गया है कि बच्चे कम के कम स्कूल की किताबों को जान तो सकेंगे कि उसमें है क्या?और क्यों है?
यही नहीं सरकारी स्कूलों में मेंटर शिक्षकों की पहचान की जा रही है उन्हें मानव विज्ञान की ट्रेनिंग दी जा रही है और शिक्षकों का ग्रुप बना बना कर उन्हें तर्क सहित ये बताया जा रहा कि शिक्षा में मूल्यों का होना क्यों जरूरी है । अच्छे इंसान समाज के लिए कितने उपयोगी है । दिल्ली के इन मेंटर शिक्षकों को चुनौती दी गई है वो ऐसा जीवन जिये जिससे दूसरों को प्रेरणा मिले । और ये काम कोई सरकार दबाव से नहीं बल्कि उनकी स्वीकृति से हो रहा है ।
सिसौदिया को उम्मीद है कि अब अगर ये प्रयोग सफल रहा तो गांधी का सफाई सिद्धांत किताबों से बाहर निकलकर व्यवहार के धरातल पर दिखने लगेगा । उन्हें उम्मीद है कबीर के दोहे हमारे व्यहारिक जीवन का हिस्सा होंगे । यही नहीं शिक्षक और छात्र के बीच परिवार जैसा रिश्ता होगा ।
स्कूलों में दिल्ली के शिक्षामंत्री की इस अभिनव प्रयोग की सफलता की मैं दिल से कामना करता हूं । क्योंकि सवाल मानव निर्माण का है ।
( ये लेख हापुड़ में जीवन विद्या अध्ययन शिविरके दौरान मेंटर शिक्षकों को संबोधित करते हुए मनीष सिसौदिया के भाषण पर आधारित है )
ये लेख यूसी न्यूज ने भी प्रकाशित किया है
http://tz.ucweb.com/5_d3qm

Sunday, April 23, 2017

यूरिन पीते किसानों पर सियासत का दिल क्यों नहीं पसीजता?

सूखे की मार झेलते किसान अब मानवता की मार से परेशान!

जब एक तरफ प्रधानमंत्री नीति आयोग की बैठक कर नये भारत की तस्वीर पेश करने की तैयारी कर रहे थे वहीं दूसरी तरफ पूरी दिल्ली में एमसीडी के चुनाव को लेकर माहौल गर्म है । क्या मीडिया, क्या नेता, क्या पुलिस और क्या  प्रशासनिक अधिकारी सबके के सब दिल्ली चुनावों में लगे हैं । वोट और सियासत  के  इस पागलपन में इंसानियत किस कदर गुम हो गई है इसका ताजा नमूना है जंतर-मंतर, जहां 40 दिन से ज्यादा हो गये 40 डिग्री से ज्यादा के तापमान में आधे-अधूरों कपड़ों में तमिलनाडु के किसान अपनी पीड़ा लेकर बैठे हैं ।

समस्या से तड़पते किसान अपना यूरिन पी गये । सुनकर ही कैसा लगता है लेकिन ये सच है देश में राजधानी में अनाज उगाने वाला किसान, अपनी बात सुनाने के लिए, अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए, मीडिया का ध्यान खींचने के लिए यूरिन पी गये । लेकिन मीडिया को चिंता इस बात कि है अजान की आवाज के चलते एक फिल्मी सितारा अपनी नींद क्यों पूरी नहीं कर पा रहा है ? कॉमेडियन गुत्ती और कपिल शर्मा का झगड़ा क्यों नहीं सुलग रहा ? मीडिया को आडवाणी और जोशी के राजनीतिक करियर की भी चिंता भी दिन- रात खाये जा रही है ।

उधर तमिलनाडु के  किसान सिर पीट रहे हैं, कभी चूहे मार कर खा रहे हैं तो कभी सांप । कभी पेड़ पर चढ़ जाते है तो कभी पत्ते लपेट कर रहते हैं ।  जिस सड़क पर सोते हैं वहीं पर खा रहे हैं , सुबह सरकारी टॉयलेट बंद रहते हैं इसलिए सड़क पर ही शौच के लिए जा रहे हैं । देश की राजधानी में इंसानियत हर दिन, हर पल शर्मसार हो रही है ।
चुनावों के दौरान किसानों की आत्महत्या के नाम पर गला फाडनेवाला विपक्ष  कहां है?  चुनाव से पहले  दादरी से लेकर रोहित वुमेला को लेकर इंसानियत की लड़ाई के नाम पर देश के सदभाव को खतरे में डालने वाले वो लोग  कहां है?  वो लोग कहां हैं जो जेएनयू में देशद्रोही नारे लगानेवालों के साथ सिर्फ इसलिए खड़े हो जाते हैं क्योंकि उनको इसमें अन्याय नजर आता है ?  कहां पर है वो संगठन जो आतंकवादियों की मौत पर मानवधिकार की बात करते हैं ?  दिल्ली की सड़कों पर  किसानों के साथ जो हो रहा है क्या उससे कहीं मानवाधिकारों का उल्लघंन नहीं हैं ?

कहां हैं दिल्ली के वो वकील जो आतंकवादी की फांसी रूकवाने लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुलवा लेते हैं ?असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरस्कार लौटनेवाले वो विद्वान कहां हैं ?  क्या वो इस कदर सहिष्णु हो गये हैं कि यूरिन पीते किसानों के दर्द को ही उन्होंने नियति मान लिया है!

दिल्ली के मुख्यमंत्री तो आमआदमी की राजनीति करते हैं । आमआदमी के लिए दिल्ली से लेकर पंजाब और गोवा से लेकर गुजरात तक सब एक कर दिया । लेकिन उनके इलाके में  क्या यूरिन पीते ये किसान उन्हें आम आदमी नहीं लगते । उन्हें कहीं ये तो नहीं लगता कि ये सब के सब विरोधियों से मिले हुए है जो उनका पेट डायलॉग हैं । या फिर तमिलनाडु में अभी उनकी पार्टी की नींव नहीं पड़ी है ?

राहुल गांधी तो एक दिन गये थे किसानों से मिलने, लेकिन बताया नहीं कि उनके दर्द को क्या समझा? क्या उनकी तकलीफों को सुनकर उनकी सवेंदनाएं नहीं उमड़ी । अगर राहुल गांधी को किसान का यूरिन पीना बेचैन नहीं करता है तो इसका मतलब है किसान 40 दिन से दिल्ली में ड्रामा कर रहे है! वर्ना तो ऐसा आंदोलन खड़ा कर देते की सरकार हिल जाती । क्यों सही है ना राहुल जी !
हमारे प्रधानमंत्री जी मन की बात करते हैं लेकिन क्या तमिलनाडु के किसानों के पास कोई  मन ही नहीं । पीएम ने  सिविल सर्विस डे पर प्रशासनिक अधिकारियों को इंसान बनने की सलाह दी है । लाल बत्ती उतरवाकर उन्होंने आम और खास के फर्क को खत्म करने का संदेश दिया तो फिर इन दीन- हीन किसान पर उनका  दिल क्यों नहीं पसीजा ? सूखा झेलते किसान क्या आम लोगों में नहीं आते ?
 बीजेपी कहती है कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देते लेकिन बीजेपी उनके साथ भी अन्याय नहीं होने देगी । तो
फिर ये किसान किस श्रेणी में शामिल हो ताकि इनको भी न्याय मिल सकें ?  मगर ये किसान तो तमिलनाड़ु के हैं और वहां उनके विधाता पनीरसेल्वल और पलानीस्वामी  इस बात में डूबे हैं कि शशिकला से कैसे निपटे? करूणानिधि इन दोनों पर घात लगाये बैठे हैं कि ये दोनों गलती करें कि वो मौका हासिल करें । ऐसे में  पिछले 140 सालों में अब तक का सबसे बड़ा सूखा झेल रहे है तमिलनाडु के किसान कहां जाते ?
इन अनपढ़ किसानों ने किस्सों में सुना था कि जब कहीं इंसाफ नहीं  होता तो दिल्ली इंसाफ करती है । भूख और सूखे का दर्द झेलते ये किसान दिल्ली तो पहुंच गये लेकिन दिल्ली इतनी बेहरम निकली बेचारे अपना यूरिन पीने को मजबूर हो गये ।  और अब ये अच्छी तरह समझ गये होंगे कि तमिलनाडु से लेकर दिल्ली तक सियासत का एक ही भाषा समझती है और वो है वोट की भाषा ।
अगर प्रदर्शन कर  रहे इन किसानों के पास वोट होता, इनकी कोई जाति होती, संख्याबल का कोई संप्रदाय होता तो शायद सियासत इनके कदमों में लोटती । मीडिया को इनमें मार्केट नज़र आता और तब इनके हक की लड़ाई के लिए नेता यूरिन पी लेते ।

Saturday, April 22, 2017

आईपीएल2017- रैना और शिखर के पास जान लड़ाने के सिवा कोई चारा नहीं

चैम्पियंस ट्रॉफी खेलना है तो दम लगाओ प्यारे 




मौजूदा आईपीएल भारतीय क्रिकेट टीम की शान माने जाने वाले शिखऱ धवन और सुरेश रैना दोनों के लिए किसी इम्तिहान से कम नहीं है  क्योंकि इसके बाद चैम्पियन्स ट्रॉफी के लिए भारतीय टीम का एलान होना है और उसे लेकर सेलेक्टर्स इस टूर्नामेंट पर नजरें गढ़ाये बैठे हैं ।
शिखर और रैना की मुश्किल ये हैं कि एक से बढ़ एक युवा खिलाड़ी लगातार दमदार प्रदर्शन कर रहे हैं और उनसे खुद को बेहतर साबित करने के लिए इन दोनों खिलाड़ियों को जान लड़ाना ही होगा । इन दोनों के पास बोनस इस बात का है हुनर और अनुभव से दोनों लदे हुए हैं ।
शुक्रवार की रात सुरेश रैना ने 84 रन की ताबड़तोड़ पारी खेलकर केकेआर के विजय अभियान को रोक दिया और गुजरात लायंस ने दूसरी जीत अपने नाम की  । रैना ने इस दौरान 9 चौके औऱ 4 छक्के लगाये । आईपीएल10 में वो अब तक दो फिफ्टी जड़ चुके हैं और करीब 60 की औसत से रन बना रहे हैं ।
अगर उन्होंने अपने इस लय को थोड़ा अपलिफ्ट किया तो सेलेक्टर्स उन्हें नज़र अंदाज करने की स्थिति में नहीं होंगे । विषम परिस्थियों में अकेले अपने दम पर टीम का जिताने का दम रखते है रैना । उन्होंने कई मौकों पर ऐसा साबित किया है ।
लेकिन टीम इंडिया का हिस्सा बनने में रैना पर तलवार इसलिए लटक रही है क्योंकि इंगलैंड सीरीज जनवरी 2015 में पुणे और कटक में खेल गये मैचों में वो कोई खास छाप नहीं छोड़ सके थे ।
उधर शिखर धवन  का बल्ला भी इस आईपीएल हैदराबाद के लिए रह -रह कर गरज  रहा है आरसीबी के विरूद्द 40 रन की पारी , मुंबई इंडियन्स के खिलाफ 48 रन की भारी और इन सब पर भारी थी डेयरडेविल्स के खिलाफ 70 रन की पारी ।
ऐसे में चैम्पियन्स ट्रॉफी के टीम में सेलेक्ट होने के शिखऱ के अवसर इसलिए भी बढ़ गये हैं क्योंकि के एल राहुल कंधे की चोट का शिकार हो गये हैं  और टीम को चाहिए एक भरोसेमंद ओपनर जो बनाएगा लेफ्ट -राइट का कांबीनेशन ।
अक्टूबर 2015 के बाद से वनडे टीम से बाहर बैठे शिखर को देखने के लिए उनके फैन्स बेकरार है और फिर जब बात चैम्पियंस ट्रॉफी को हो तो शिखर से बड़ा कोई नहीं । कोई कैसे भूल सकता है चैम्पियन्स ट्रॉफी 2013 को ।  पांच मैचों में उन्होंने करीब 90 की औसत से दो शतक और एक अर्धशतक की मदद से 363 रन बनाये थे । शिखर मैन ऑफ द सीरीज रहे ।
तो टीम इंडिया के गब्बर शिखर और टीम के तूफान रैना को आईपीएल में आनेवाले दिनों में और आक्रामक होना ही होगा ।

ब्रम्हांड में तैरती धरती की नैय्या में छेद हो चुका है

22 अप्रैल -धरती दिवस पर विशेष 


धरती को समझने के लिए हमें सबसे पहले इस अस्तित्व को समझना होगा । इस अस्तिव की गूढ़ता को जाने बिना हम धरती का उध्दार कर ही नहीं सकते । इस धरती पर मुख्य रुप से चार चीजे हैं पहला पदार्थ- जिसमें  पहाड़, मिट्टी खेत, खदान आदि जैसी चीजें आती है । दूसरा है प्राण - जिसमें पेड़- पौधे आते हैं । तीसरा है जीव- जिसमें पशु-पक्षी कीड़े-मकोड़े आते हैं । और चौथी चीज है ज्ञान जिसे हमने मानव की संज्ञा दी है ।
सबसे पहले हम धरती पर मौजूद  पदार्थ को समझते हैं । मिट्टी उपजाऊ है इसलिए हमारे खेत लहलहा रहे हैं । खदानें है इसलिए हम जरूरत का सारा सामान धरती भीतर से निकाल पा रहे हैं । पानी , तेल से लेकर सोना और चांदी तक धरती हमको दे रही हैं । जरा सोचिए  कि इनमें से कई चीजें जिसका हम भंडार कर रहे हैं उनका जिंदा रहने के अर्थ में कितना उपयोग है ।
दूसरी चीज है प्राण जिसका मोटा मतलब है  पेड़-पौधे  । धरती के लिए सबसे खतरनाक चीज है कार्बनडाई आक्साइड जिसे पैड़ पौधे ग्रहण करते हैं और आक्सीजन से वातावरण को भर देते है यानी लेते कम है और वायुमंडल , धरती को देते बहुत कुछ हैं ।
तीसरी चीज है जीव-जंतु जितनी जरूरत होती है उनता आहार लेते हैं, मौसम और प्रकृति के अनुकूल मैथून करते हैं और जरा चिंतन करें तो देखेंगे पशु अपने मल से इस धरती पर पेड़- पौधे को पोषण प्रदान करने का सबसे बढ़िया तरीका रहा है ,वहीं वनों के विस्तार में पक्षियों के मल की उपयोगिता स्वयं में प्रमाणित है ।
अब अगर तीनों का बारीकी से अध्ययन करें तो पायेंगे पदार्थ, प्राण और जीव एक दूसरे के पूरक है जितना एक -दूसरे से लेते हैं उससे ज्यादा एक दूसरे को देने का भाव इन तीनों में स्वस्फूर्त है । जबकि अस्तित्व ने इनको सोचने- समझने और जानने की शक्ति से वंचित कर रखा है ।
और आइये इस अस्तित्व में मानव को पहचानते हैं । मानव जिसे जिंदा रहने के अर्थ में प्रतिदिन थोड़ा सा भोजन चाहिए । वो सभ्यता का दावा करता है इसलिए तन ढंकने के लिए कपड़ा चाहिए और खुद को अनुशासित कहता है इसलिए उसे सिर पर छत चाहिए । उसकी ये जरूरते इस विशाल अस्तित्व में कुछ भी नहीं है, बहुत थोड़ी है ।
आप कल्पना करिए कि जीव-जंतु, पेड़-पौधे,  जिनके पास सोचने की समझने की शक्ति नहीं वो कभी भूख, से, दरिद्रता से नहीं मरे तो फिर मानव कैसे मर सकता है !
लेकिन मानव ने अपने सुविधा के लिए जंगल के जंगल साफ कर दिये । मानव की कृत्रिम भूख के चलते  नदियों का वजूद खत्म होने की कगार है । कई नदियां तो जीते जी मर गई । मानव ने अपने  शरीर को सुविधा सम्पन्न बनाने के लिए वायुमंडल को जहरीला बना दिया । मानव के चलते जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां, वनस्पतियों की असंख्य प्रजातियां लुप्त हो चुकी है ।
तो ये समझ आता है कि पदार्थ, प्राण और जीव की तरह मानव को भी इस व्यवस्था में पूरक होकर जीना था। लेकिन सिर्फ मानव का  प्रकृति से व्यवहार एक तरफा रहा । उसने सिर्फ लिया ही लिया है दिया कुछ भी नहीं ।
कल्पना की असीम शक्ति से भरा मानव दरिद्रता के दुर्गण में इस कदर लिप्त है कि उसकी सोचने, समझने की शक्ति ही खत्म हो गई है । यहां दरिद्रता से तात्पर्य ये हैं कि जितना भी आपके पास है आप उससे संतुष्ट नहीं हो । सुविधा का संग्रह करने में मनुष्य ने अपने ज्ञान का और कल्पना शक्ति का दुरूपयोग किया और सिर्फ जिंदा शऱीर बन कर रह गया । इस चक्कर में जीवन उससे कोसों पीछे छूट गया । लोभ में ग्रस्त मानव जीवन -जीने की कला ही नहीं सीख पाया । जिनता साधन-सम्पन्न मनुष्य वो अस्तित्व का उनता बड़ा अपराधी ।  
तो इतना जान लीजिए कि मानव जब तक खुद को जानने की शिक्षा से अछूता रहेगा वो इसी तरह धऱती को विनाश की तरफ लेकर जाता रहेगा और एक दिन खुद इस विनाश में अपने खूबसूरत अस्तित्व को खो देगा ।
आपको पता है इस विशाल ब्रम्हांड में तैरती धरती की नैय्या में  ओजोन नामक  छेद हो चुका है वायुमंडल में ज़हर तेजी से घुस रहा है अभी भी आप नहीं चेते तो आप ,अपने बच्चों के कातिल कहलाओगे ।

( ये लेख भारत के परंपरागत ज्ञान और बाबा नागराज के मध्यसस्थ दर्शन पर आधारित है )
  

Friday, April 21, 2017

देश की दुर्दशा के मूल कारण को पीएम ने पकड़ लिया

प्रधानमंत्री का अब का सबसे बढ़िया भाषण
प्रशासनिक अधिकारियों को प्रधानमंत्री ने आइना दिखाया
सिविल सर्विस डे पर प्रधानमंत्री ने दिल से बोला
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संयोग की बात है कि आज मेरी एक ऐसे लड़के से बात हुई जो दिल्ली में रहकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा है ।
मैंने पूछा क्यों कर रहे हो इनती तपस्या?
वो फौरन बोला देश के लिए कुछ करना चाहता हूं ।
मेरा दूसरा सवाल था देश की सेवा करना चाहते हो कि अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहते हो?
उसने ईमानदारी से कहा हां ये भी एक कारण है।  
मैने उससे कहां तो फिर सीधे- सीधे कहो की खुद के लिए कुछ करना चाहते हो देश को बीच में क्यों ला रहे हो और वो चुप ।
ये सिर्फ इस युवक की बात नहीं है इस देश में जिनते भी लोग सिविल सर्विसेज की तैयारी करते हैं सब का प्राथमिक दृष्टिकोण हूबहू ऐसा ही रहता है । अतीत का दुख, वर्तमान का दर्द और भविष्य के देवत्व में झूलती इनकी जिंदगी ही भारत के विकास की सबसे बड़ी बाधा है । यही वजह कि प्रशासनिक सेवा में पहुंचते ही व्यक्ति अपने खुद के भविष्य को सुरक्षित करने में इस कदर भिड़ जाता है देश की सेवा, मानव की सेवा सब बातें बन कर रह जाती है ।
सिविल सर्विस डे के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हंसी -हंसी में ही सही लेकिन साफ- साफ कहा कि आप लोगों की जिंदगी दफ्तर की फाइल बन कर रह गई है । प्रधानमंत्री ने अधिकारियों के मुरझाये चेहरे से बात शुरु की और परिवार तक ले गये । परिवार के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताने का जिक्र कर उन्होंने कह दिया कि जब आपकी भागमभाग भरी जिंदगी से परिवार ही खुश नहीं तो आप लोग आम लोगों को क्या खुशी दे पायेंगे!
प्रधानमंत्री मोदी की लभगभ हर बात से जीवन का दर्शन झलक रहा था उन्होंने कहा कि कहीं आप रोबोट की जिंदगी तो नहीं जी रहे । कहीं आप लोगों के अंदर का इंसान खो तो नहीं गया । उन्होंने यहां तक कह दिया कि मसूरी में मिली ट्रेनिंग के दौरान आप लोगों को मिली शिक्षा भी शायद आपको याद नहीं ।
अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने मसूरी में शिलालेख पर उद्धरित सरदार पटेल के उस वाक्य का जिक्र किया जिसका मज़मून ये है कि आप तब तक स्वतंत्र भारत की कल्पना नहीं कर सकते जब तक आपके पास स्वतंत्रता पूर्वक व्यक्त करने वाली प्रशासनिक व्यवस्था ना हो ।
प्रधानमंत्री के मुताबिक व्यवस्था को समझने की जरूरत है, जिसके भीतर का इंसान ही खो गया होगा वो कैसे स्वतंत्र होगा ? जिसका स्वयं पर कोई नियंत्रण नहीं हो,    जिसने  अव्यवस्था को ही अपनी सेवा का हिस्सा मान बैठा हो । उसके अंदर का जीवन,  जिसे हम इंसान कहते हैं वो सत्य ,प्रेम और न्याय मूल भावना से  कब का कोसो दूर हो गया है  ।  अब ऐसे  लोग उस भारत को कभी नहीं बना सकते जैसी कल्पना सरदार पटेल और अन्य महापुरूषों ने की है ।
सत्य को प्रमाणित करने के लिए वो  प्रशासनिक सेवा से जुड़े लोगों को उस भाव की ओर ले गये जिस पवित्र भाव से उन्होंने प्रशासनिक सेवा से जुड़ने का मन बनाया था वैसे ही जैसे मैंने लेख के शुरू में एक युवा के प्रसंग का वर्णन किया । उन्होंने स्पष्ट कहा इस नौकरी में आपका वो परम पवित्र भाव विचार खो गया है।
मोदी के विचारों समझे तो वो कहते हैं कि असल में आपका वो भाव ही नहीं खोया इस नौकरी में आप का अस्तित्व ही खो गया है । तभी उन्होंने अपनी बात की शुरूआत सभा में मुरझाये बैठे अधिकारियों को इंगित करके कही । फिर उन्होंने कहां कि आपका परिवार ही आपसे प्रसन्न नहीं है । जब परिवार ही प्रसन्न नहीं है तो फिर आप लोग दूसरों की परेशानियों को कैसे समझेंगे ?
उन्होंने कहां कि आप अपने बच्चों के उदाहरण बने, सोशल नेटवर्किंग साइट पर खुद के महिमामंडन आपके अहंकार का प्रतीक है । इसमें सेवा की भावना परिलक्षित नहीं होती ।
कुल मिलाकर प्रधानमंत्री ने इस देश की सबसे बड़ी कमजोरी को पकड़ लिया है । वो जान गये है मानव को मानव बनाये बिना ये देश, ये समाज और ये राष्ट्र समस्यामुक्त नहीं हो सकता । उन्होंने अफसरों से अपील की मसूरी ट्रेनिंग कैंप के ध्येय वाक्य "शीलम परम भूषणम" को कृपया आप लोग अपने जीवन का हिस्सा बनाये देश अपने आप सुधर जायेगा ।

लालबत्ती की बंदी तो बदलाव का सिर्फ ट्रेलर है



पुराने सरकारी ढर्रों के दिन अब लद गये 


देश के लिए सिस्टम को बेहतर 
करना ही होगा  

 
मंत्रियों और अफसरों की गाड़ियों से लाल बत्ती हटा कर बीजेपी ने वीआईपी कल्चर खत्म करने की शुरूआत कर दी है । बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय सहस्त्रबुद्दे ने इसे  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  की आम आदमी को ताकतवर बनाने के दिशा में एक और प्रभावशाली कदम बताया है । इस मामले में पूरी बीजेपी प्रधानमंत्री के साथ है, पार्टी चाहती है कि आम और खास के बीच का फर्क खत्म हो, इसके लिए प्रतीकों को ध्वस्त करना जरूरी था ।
लालबत्ती की बंदी से पहले प्रधानमंत्री नोटबंदी कर सुधारवादी इच्छाशक्ति का प्रदर्शन कर चुके हैं । वो कहते हैं कि विरोधी भले ही कुछ कहे लेकिन प्रधानमंत्री के इस फैसले ने नकली नोट बनाने वालों, तस्करी करने वालों, नशे का कारोबार करने वालों , कालाबाजारी करने वालों, कालाधन रखने वालों ,  हवाला कारोबारी , आतंकवाद में शामिल लोगों में एक डर पैदा किया है । नोटबंदी के इस फैसले से ईमानदारी प्रमाणित हुई है और बेईमान लोगों में पहली बार इस कदर हड़कंप मचा है ।
साधारण आदमी को सशक्त बनाने के लिए सरकार पिछले ढाई सालों में लगातार इस प्रयास में लगी है कि पुराने बेकार हो चुके कानून के बोझ से आम जनता का मुक्त कराये औऱ वो कानून मुहैया कराया जाय जिससे साधारण आदमी सरलता से व्यवस्था में भागीदार बना रहे ।
64 साल पुराने योजना आयोग की जगह नीति आयोग को अस्तित्व में लाने के प्रधानमंत्री के फैसले को भी सहस्त्रबुद्दे आधुनिक सोच से भरा कदम मानते हैं । उनका मानना है आयोग का एक धड़ा राज्यों और क्रेंद्रीय सचिवालयों के बीच समझ को विकसित कर सबका साथ और सबके विकास  की दिशा में काम कर रहा है, तो ज्ञान और नवप्रवर्तन से जुड़े एक दर्जन स्तरों पर विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता विकसित करने का काम सौंपा गया है,जैसे-व्यापार और वृहद स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास, शिक्षा तथा कौशल विकास । ताकि समृद्धि का आधार  ठोस हो, नतीजे सकारात्मक हो ।
रेल बजट को आम बजट का हिस्सा बनाकर बीजेपी सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय दिया है । तो वहीं जीएसटी के मूल में भी आम आदमी की सहूलियतें ही सर्वोपरि हैं।  
सहस्त्रबुद्दे का मानना है कि आनेवाले दिनों सरकार और भी ऐसे साहसिक फैसलों से अपने विश्वास को प्रदर्शित करती रहेगी । वो अब तक उठाये कदमों को सिर्फ शुरूआत की संज्ञा देते हैं उनका कहना है विकसित और समृद्धिशाली भारत बनाने के लिए हर मोर्च पर बहुत बदलाव की जरूरत है जो आनेवाले दिनों जनता महसूस करेगी ।

( ये लेख बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विनय सहस्त्रबुद्धे से श्रीधर राव की बातचीत पर आधारित है )

Thursday, April 20, 2017

सचिन..! सचिन..! जीत का मंत्र

जब मैंने भगवान को अनुभूत किया!

डाक्यूमेंट्री फिल्म सचिन ए बिलियन्स ड्रीम पर प्रतिक्रिया







आज भी मैं अपनी किस्मत का शुक्रिया अदा करते नहीं थकता वाकई ना जाने इस किस्मत पे कितनों ने रश्क किया होगा । जी हां मैं उन इंसानों में शामिल हूं जिसने सचिन तेंदुलकर के टेस्ट करियर के आखिरी मैच को अपनी आंखों से देखा ।
मै स्टार स्पोर्टस के साथ  टीवी प्रोडक्शन क्रू का हिस्सा था । वानखेड़े स्टेडियम में भीतर बैठ कर बिना पलक झपकाये सारे लोग अपना काम कर रहे थे ।
चौदह नवंबर को पहले दिन मुझे लगता है करीब तीन बजे के आसपास शिलिंगफोर्ड पारी का चौदहवा ओवर फेंक रहे थे ।  पहली गेंद में उन्होंने शिखर धवन को आउट किया और चौथी गेंद में विजय को । भारत के दोनों ओपनर आउट हो गये ।
तभी अचानक वानखेड़े का जर्रा-जर्रा शोर से गूंज उठा उस शोर में कुछ ऐसा था जिसने रोम-रोम को रोमांचित कर दिया । दिल की धड़कनों में अचानक मानों एक नई उर्जा हो गई हो । दिमाग उत्साह से भर गया । हर आंखों में अजीब से चमक थी ।
मुझसे रहा नहीं गया उत्सुकता वश प्रोडक्शन रूम से मेरे कदम खुद का खुद खुले स्टेडियम की तरफ दौड़ पड़े। वानखेड़े का कोना कोना भरा हुआ था । एक एक दर्शक खड़ा था । पूरी दुनिया की मीडिया हैरान थी कि हो क्या रहा है । करीब चालीस हजार से ज्यादा लोग एक आवाज में पूरे लय के साथ चिल्ला रहे थे सचिन..... सचिन ......
हमेशा की तरह अनंत अंतरिक्ष को देखते सचिन बाहर निकले और गार्ड ऑफ ऑनर के लिए पूरी वेस्टइंडीज की टीम उनके सामने खड़ी थी । अभी तो चमत्कार को देखने का सिलसिला शुरु हुआ था  और  परिदृश्य में सचिन..! सचिन ..!की गूंज थमने का नाम नहीं ले रही थी ।
सचिन ने सोलहवें ओवर की पहली गेंद पर भाग कर एक रन लिया । भाई साहब!  इस रन पर दर्शकों का शोर एक साथ ऐसे गूंजा मानों सचिन के इस शॉट से एक हजार रन निकले हो । दर्शक थे कि अपनी सीट पर बैठने को तैयार नहीं थे । अनगितन तिरंगे झंडों से लहलहा रहा था स्टेडियम
अठारहें ओवर की दूसरी गेंद में सचिन के बल्ले से पहला चौका निकला आप सिर्फ कल्पना कीजिए कि चालीस हजार से ज्यादा लोगों ने क्या किया होगा ऐसा शोर जो आज भी कानों में शक्ति बन कर गूंजता है । वो दिन जिंदगी का पहला दिन था कि मेरे रोम रोम बिना थके लगातार नर्तन कर रहे थे ।
मैंने गांधी की लोकप्रियता के किस्से पढ़े थे । मैंने भगवान राम के लिए जनता को उनके पीछे दौड़ने की कहानियां सुनी थी । लेकिन पहली बार किसी व्यक्ति के प्रभाव का ऐसा जीवंत दर्शन कर रहा था । सचिन का सिर्फ एक हाथ उठता था और स्टेडियम में ऐसी शांति हो जाती कि मानों खाली पड़ा हो स्टेडियम ।
शायद वो मेरे जीवन का पहला दिन था जब मैंने भगवान को देखा , क्रिकेट का भगवान ।  अगले दिन मैच के खत्म होने के बाद सचिन अपना विदाई भाषण पढ़ रहे और स्टेडियम में खड़े दर्शकों की आंखों से आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे । सचिन बोल रहे थे पूरा समां शांत था, स्तब्ध था,  वहां भावनाओं का ऐसा ज्वार था कि उस वक्त शायद अरब सागर में लहरें भी ना उठी हो ।
26 मई को रीलीज हो रही उनकी डाक्यूमेंट्री फिल्म "सचिन ए बिलियन्स ड्रीम" के ट्रेलर में सचिन कहते है कि क्रिकेट खेलना मेरे लिए मंदिर जाने जैसा था ।  उनकी पत्नी कहती है उनके लिए हम सब बाद में थे पहले क्रिकेट था और इसको स्वीकार करने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं था ।
निश्चित तौर पर ये कहानी एक साधारण लड़के के जीते जी  भगवान बनने की कहानी है , जिसका इंतजार पूरी दुनिया के क्रिकेट प्रेमी कर बेसब्री से रहे हैं ।