ज्ञान की कांति और विकास की क्रांति का आधार है हमारी
भाषाएं
भाषा अभिव्यक्ति का जीवंत माध्यम है व्यक्ति भाषा के माध्यम
से बड़ी सरलता से व्यक्त होता है जो व्यक्त नहीं हो पाता उसकी बेचैनी, उसकी पीड़ा
और उसकी व्यथा अंधेरे काल कोठरी में कैद मानव से भी ज्यादा कष्टप्रद है। कल्पना
कीजिए भाषा ना होती तो क्या होता? कुछ ना होता, ना ज्ञान, ना विज्ञान, और मानवता। बिना
भाषा के मानव पशुवत होता।
धन्यवाद दीजिए उन ऋषियों का, मनीषियों का और
विद्वानों का जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अपने क्षेत्र में अपनी अपनी भाषा को
संजोया, सहेजा, संकलित किया फिर उसे वैज्ञानिक और तर्कसम्मत बनाया। अपने ज्ञान के श्रम
से उसे व्याकरण में ढाला। उसे ग्रंथों में, किताबों में, उतारने के लिए लिपियों का
सृजन किया। ना जाने कितने युग और कितनी पीढ़ियां खप गई होंगी एक भाषा को बनाने में।
तब कही जाकर व्यक्ति ने स्वयं को दूसरे व्यक्ति के सामने व्यक्त किया होगा । व्यक्ति
से परिवार, फिर समाज और फिर राष्ट्र की कल्पना साकार हुई होगी। ये भाषा ही मानव और
मानवता के उत्थान का भाषण है।
अब आईये भारत की बात करते है। जितने राज्य उतनी भाषा
और इसमें समाहित और प्रस्फुटित ना जाने कितनी बोलियां। कैसे लोग रहे होंगे वो कर्नाटक वाले कि
उन्होंने कन्नड़ बनाया, कैसी मिट्टी रही होगी कि पास के ही तमिलनाडु में तमिल भाषा
ने जन्म लिया इन दोनों के बीच में क्या हवा चली होगी कि तेलगू भाषा ने आकार लिया,
गाड़ी से आधे दिन का सफर भी पूरा नहीं होगा कि आप खुद को मलयाली भाषा के लोगों के
बीच पायेंगे, गुजराती, मराठी, पंजाबी, असमिया, सिंधी, उड़िया जैसे दर्जनों भाषाएं,
सैकड़ों बोलियां एक ही भू-भाग में पुष्पित और पल्लवित हुईं। ये भाषाएं प्रमाण है हमारे
महान पूर्वजों के ज्ञान की। उनकी मेधा और प्रतिभा युगों-युगों से आप को ये अहसास
करा रही है कि आप असाधारण लोग है। ज्ञान की कांती और परिवर्तन की क्रांति को हमारे
पूर्वजों ने अपनी भाषायी विविधता से ही परिभाषित कर दिया है।
हर क्षेत्र की भाषा वहां का संस्कार है संस्कार वो
जिससे मानव और मानवता दोनों सुखी होते है । और जब सुख की कल्पना होती है तो अहंकार,
लोभ और क्रोध पर विजय होती है। ऐसे में ही एक भाषा दूसरी भाषा से जुड़ती है, मिलती
है सीखती है समझती है और संस्कारों का, ज्ञान का आदान-प्रदान करती हैं। यहीं इस
देश में भाषा की परिपाटी रही है। तभी तो केरल में पैदा हुआ शंकर मध्यप्रदेश में
नर्मदा तट पर ज्ञान प्राप्त कर शंकराचार्य बनता और काशी में गंगा के तट पर मंडनमिश्र से शास्त्रार्थ करता है।
भारतीय भूभाग के चारों दिशाओं में चार धाम और चार ज्ञान मठों की स्थापना कर
शंकराचार्य ने भारत को सांस्कृतिक,
धार्मिक और साहित्यिक तौर पर एक कर दिया। शंकर विरचित जो देव स्त्रोत मल्लिकार्जुन में गाये जाते है उन्हीं स्त्रोतों से काशी में विश्वनाथजी की
वंदना होती है। रामेश्वरम में बाबा को प्रसन्न करने तमिल लोग गंगाजल लेने त्रिवेणी
संगम तक आते है। ऐसे में भारत अलग कैसे हो सकता है। जाहिर है भाषा हमारी समृद्धि
का प्रतीक है जो हमारी एक संस्कृति को व्यक्त करती है। युगों-युगों से हम ऐसे ही
एक दूसरे को सीखते-सिखाते रहे हैं और आपस में बंधु-बांधव बन कर रहे हैं।
आज भी भारतीय करेंसी पर विविध भाषाओं में अंकित
मुद्रा का मूल्य दरअसल मुद्रा के मूल्य से ज्यादा भारतीयों मूल्यों को ही व्यक्त
करता है, व्यक्त करता है भारत की समृद्धि को। भारत के भाषायी वैभव को। भाषा भारत
में विभेद का नहीं, वैभव का प्रतीक है। आइये हम भारत की भाषाओं को अपनायें. उनका
सम्मान करें, उन्हें सशक्त करे और उनका वैभव बढ़ाये। भारत की नयी शिक्षा नीति भी
भारतीय भाषायी मूल्यों की गरिमा से प्रेरित है उसका स्वागत करें।
अगले लेख में भाषाओं की विविधता में भारत की आर्थिक समृद्धि के सूत्र
1 comment:
You are a magician of words, feeling and knowledge. Jitni tareef ki jaaye utni kam hai.
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