Sunday, September 6, 2009

शिक्षक दिवस पर विशेष ...


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जब तक मैं स्कूली शिक्षा ग्रहण कर रहा था तब तक मेरे भीतर शिक्षकों के लिए आदर कूट-कूट कर भरा था। लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के दौरान शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी का मेरे लिए कोई खास मतलब नहीं रहा। भटकाव का ऐसा दौर था कि ना तो कोई दिशा थी और ना ही कोई दिशा दिखानेवाला। दब कर रहा तो लोगों ने दबाया, उससे उबरने के लिए गलतियां शुरू की तो लोगों ने उसे भड़काया। उस गुस्से में लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। लेकिन स्कूली शिक्षा के दौरान जो बीज मेरे माता- पिता और शिक्षकों ने बोया था उसे तो पेड़ बनना ही था। बस यू समझ लीजिए बच गया उनके आशीषों की बदौलत और गलतियां करने से ..।
लेकिन कॉलेज के दिनों में लगता है मेरा वक्त कुछ खराब चल रहा था कि सच्चा सानिध्य, सही मार्गदर्शन, नहीं मिल पा रहा था। पता नहीं उस वक्त मेरी जिंदगी से शिक्षक कहां चले गये थे? ।और मेरा पक्के तौर पर मानना है जब -जब वक्त खराब होता है फिर वो चाहे व्यक्तिगत हो ,चाहे सामाजिक तौर पर हो या फिर राष्ट्र पर कभी कोई संकट आये उस वक्त रोशनी बनकर कोई दिशा दिखा सकता है तो वो है सिर्फ और सिर्फ एक शिक्षक। फिर वो चाहे किसी भी रूप में आए ...
इस संदर्भ में रामचरितमानस का एक बहुत ही सुंदर दृष्टांत है । तुलसीदास जी लिखते है कि हर तरफ अधर्म सिर उठा रहा था। अनाचार अनियंत्रित हो गया था ।
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा ।जे लम्पट परधन परदारा ।।
मानहीं मातु पिता नहीं देवा। साधुन्ह सन करबावहीं सेवा ।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानहु निसिचर सब प्रानी ।।
राष्ट्र पर आसुरी संकट का बोलबाला था। लेकिन इन सब दूर शांत निर्जन वन में आश्रम बना कर एक शिक्षक मानव कल्याण के नित नये शोध में तल्लीन था ।
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी।।
लेकिन बढ़ते अत्याचार, अनाचार और अन्याय ने उस शिक्षक को बेचैन कर दिया । राष्ट्र को संकट में देखकर छटपटा उठी उस शिक्षक की आत्मा। महामुनि विश्वामित्र को आश्रम का सुरम्य वातावरण नर्क लगने लगा।
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
गाधि के पुत्र विश्वामित्र ने अपनी तपस्या छोड़ दी , अपना आश्रम छोड़ दिया । छोड़ दिया हरितिमा से आच्छादित वो सुंदर वन प्रांत और हाथों में दंड लेकर कूच कर गये राजमहल की ओर। उन्हें जगाने के लिए, जो सत्ता सुख चूर थे। जिन्हें राष्ट्र का काम करना था वो महलों में परिवार के साथ मौज मस्ती कर रहे थे।
तब एक शिक्षक निडर होकर सत्ता को चुनौती देने के लिए, उसे ललकाने के लिए राज महल के दरवाजे पर खड़ा हो गया। लेकिन मानना पड़ेगा उस समय के शिक्षकों के दिये उन संस्कारों को !
राजा दशरथ को जैसे ही पता चला एक शिक्षक उनके दरवाजे पर खड़ा है। राजा ने अपना सिंहासन छोड़ दिया । अपना महल छोड़ा और नंगे पैर दौड़ पड़े शिक्षक का अभिनंदन करने । उनका स्वागत करने के लिए..।
तुसलीदास जी लिखते हैं ..
मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥
अपने सिंहासन पर शिक्षक को बैठाया। राजा दशरथ ने खुद विश्वामित्र के पैर धोएं। जी भर कर शिक्षक की सेवा की। जब संतोष हो गया तब बड़े ही हर्षित मन से राजा ने ऋषि से कहां .किसी से कहला दिया होता मैं खुद आश्रम आ जाता। हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा।
राजा का ये कहना थी कि विश्वामित्र ने खड़े होकर कहा राजन! इस राष्ट्र को बचाने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए, मानवता को महान आदर्शों को जीवित ऱखने के लिए मुझे तुम्हारे दो पुत्र चाहिए । ये देश बलिदान मांग रहा राजन! क्या तैयार हो...
असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
एक शिक्षक, एक पिता से राष्ट्र के लिए पुत्र का बलिदान मांग रहा था । राजा दशरथ की आत्मा अंदर से हिल गई। लेकिन शिक्षक का सम्मान इतना ऊंचा था कि शिक्षक को ना करने की हिम्मत नहीं थी उनमें ... सौंप दिया राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के हाथों ।
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥
राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। फिर कहा हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! अब आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं।
उसके बाद एक शिक्षक के मार्गदर्शन में राम और लक्ष्मण ने जो किया वो पूरी दुनिया के सामने आदर्श है ...।
रामचरित मानस का ये दृष्टांत आज के दौर के शासकों, शिक्षको और शिष्यों सभी के लिए उतना ही प्रासंगिक है जिनता उस समय था। अगर कोई देश कमजोर है, किसी दे्श में भ्रष्टाचार है किसी देश में अराजकता है तो आंख बंद करके ये मान लीजिए वहां का शिक्षक अपना धर्म भूल गया है....वहां के शिक्षक का वजूद संकट में है।

5 comments:

क्या आपको पता है? said...

Apka darbar badiya laga sir sir

Unknown said...

bahut khubsurat likhte hain aap...apke lekh mann ko gudgudate bhi hain aur achambhit bhi karte hain....lekin abhi ye blog adhura hai....

jaideep shukla said...

bhaiya kafi aacha likha hai aapne...

Unknown said...

बहुत सुन्दर श्रीधर ....बहुत अच्छा लिखा ...तुमसे बहुत उम्मीदे है ....ऐसे ही लिखते रहो....

Kalpana shrivastav said...

बहुत सुंदर .... वाकई,गर्व होता है,ये वही १९८५ वाला Shridhar है . बहुत खूब बेटा,हमेशा तरक्की करते रहो, ढेरों आशीष।