Wednesday, May 21, 2008

बारूद का दर्द, टेलीविजन के नाम...

दर्द-ए- दिल में ज़बरदस्ती की हंसी लेकर भाई साहब दफ्तर पहुंचे।
लेकिन उससे पहले ही महिलाओं का जोर-जोर से हंसने का शोर बाहर तक ही सुनाई दे गया था। वो समझ गये काम के सिवा कुछ और ही हो रहा होगा। खैर टीवी के दफ्तर में ऐसा ना हो तो मन भी नहीं लगता। अभी कुर्सी में बैठे ही थे कि भाई साहब पर आरोपों की झड़ी शुरू हो गई। अरे आरोप कोई संगीन नहीं थे लेकिन भाई साहब के लिए संगीन से कम भी नहीं थे । आखिर बैठे-बिठाये महिलाओं से रिश्ता जो जोड़ा जा रहा था। बेचारे का नसीब देखिए आह भी भरते हैं तो हो जाते है बदनाम।
खैर ये तो चलता है अब काम की बात सुनिए ...
एक जुझारू रिपोर्टर अपने -बड़े बड़े बालों को आंखों के सामने लटका कर लगा हुआ था उंगुलियों को नाजुक कंप्यूटर पर पटकने में। थक जाता तो एक बार बाल उठा कर पीछे कर लेता और एक नजर में मस्त माहौल का मुआयना भी कर लेता (मस्त माहौल को जीने की कोशिश ज़रूर करिएगा नहीं तो रस नहीं मिलेगा )। लेकिन उसके बाल कहां मानने वाले थे। वो तो फिर आ जाते थे किसी ने सच कहा है कुत्ते की पूंछ कभी सीधी हुई है, यही हाल था बालों का। लेकिन उनका हाल देखकर भाई साहब जान गये कि बंदा कुछ उखाड़ के लाया है। क्योंकि सुपीरियर साहब ने आते ही प्रोड्यूसर को घेर लिया । ऊंगली से इशारा कर बुला भी लिया। शुरू हो गया कैसे करना है। क्या करना है । लेकिन उनमें उत्साह इनता ज्यादा था कि विषय का जिक्र उन्होंने किया ही नहीं। आजकल टेलीविजन में ऐसे ही काम होता है । प्रोड्यूसर ने खुद को इस व्यवस्था का आदी बना लिया था। वो सुनता रहा । लेकिन उसे भी माजरा तब समझ आया जब मेल पर उसे रिपोर्टर लिखित बारुद के ब्रिक्री केंद्रों की कंप्यूटराइज्ड पांडुलिपि प्रेषित की गई। ख़बर दम में था। बोले तो देश का भला होता तो होता। टेलीविजन को भी मिल जाती टीआरपी। प्रोड्यूसर लग गया स्क्रिप्ट तैयार करने में । एक तरफ रिपोर्टर, वीडियों एडीटर और अपने कैमरामैन के साथ लग गया कंप्यूटर में अपने स्टिंग ऑपरेशन के वीडियों को घुसेड़ने में। जैसे तैसे उसका काम भी निपट गया । प्रोड्यूसर ने जो लिखा था माइक लेकर उसे भी उसने अपने मुंह से कंप्यूटर के कान में ठूंस दिया। दफ्तर की महिलाओं ने एक साथ ताली बजाकर हर्ष और उत्साह का प्रदर्शन मानों यूं किया जैसे सचिन ने छक्का जड़ दिया हो। गंभीरता और हास परिहास का इससे बढ़िया तालमेल आपको बहुत कम देखने को मिलेगा। खैर स्टिंग ऑपरेशन की पैकेजिंग शुरू हो गई, एडीटर बगुला भगत की तरह आंखे गढ़ाएं भिड़ गये थे खतरनाक खुलासे को प्रभावशाली तरीके से पेश करने की तैयारी में । लेकिन वक्त को उन पर दया भी नहीं आ रही थी। वो बेरहमही से बढ़े चले जा रहा था। आसपास कोई लड़की भी नहीं थी जो वक्त लिएगाती कि ए वक्त रूक जा थम जा ठहर जा ,वहीं गाना जो काजोल ने शाहरूख के लिए गाया था। उधर, जैसे-जैसे घड़ी का कांटा नौ को छू रहा था सुपीरियर का पारा चढ़ रहा था।वो सवार था वीडियो एडीडर के सिर पर, प्रोड्यूसर का प्रेशर अलग था, रिपोर्टर की छटपटाहट देखते ही बनती थी।एक तरफ स्टूडियो तैयार हो रहा था खास शो के लिए खास तरह से।
पहले एक इंटर्न को पीसीआर दौड़ाया गया तैयार वीडियो की फाइल बना कर भेजने के लिए। लेकिन वहा ना तो वीडियो दिख रहा था ना ऑडियो । फिर खुद सुपीरियर साहब दौड़ कर अंदर गये लेकिन बात बनी नहीं उलटे बेचारा सिस्टम गाली खाने को मजबूर हो गया एक फाइल लेकिन उसमें लगे थे कई लोग, रिपोर्टर, प्रोड्यूसर एडीटर, कैमरापरसन कुछ सिनेमावाले भी तनाव में लगे थे अपना माथा बंटाने में । तनावभरे माहौल में ना जाने किसकी मां किसकी बहन की शामत आई थी बस समझ लीजिए बरसात हो रही थी मां बहन के बोल वचन की । इस बीच दिल्ली से लेकर मुंबई तक दर्जनों बार फोन घनघना थे। लेकिन सिस्टम के कानों में जूं तक नहीं रेंगा आखिर में पैकेज लाइव मोड पर भेजना पड़ा।
अब देखिए तमाशा इतना सब कुछ करते होते शो शूरू हो गया । प्रोमो चला था बड़ा खुलासा होगा । रिपोर्टर अपनी मेहनत को अंजाम होते देखने औऱ दिखाने के लिए बैठ गया खुद लाइव पर।
लेकिन शो शुरू हुआ तो वीडियों ठीक से चल ही नहीं पाया जितनी उस पर मेहनत की गई थी।
करने बैठे थे बारूद का धमाका लेकिन खुद फुस्स हो गये। दिन भर की इतनी मारामारी की हवा एक झटके में निकल गई । शो को औऱ खींचा भी जा सकता था लेकिन अगला शो था मौजूदा हिंदुस्तान के महापुरूष, राष्ट्र पुरुष बन चुके महाबली खली का। महान खली के सामने और कुछ कैसे गंवारा हो सकता था। क्योंकि जब खली दहाड़ता है तो दुश्मनों के छक्के छूट जाते हैं । उसकी दहाड़ से जरूर आतंकवादियों की बोलती बंद हो जाएगी। खुले आम बिकते बारूद के स्टिंग ऑपरेशन से क्या होगा.. देश ऐसे ही चलता है चलता रहेगा ...
लेकिन बेचारे रिपोर्टर को कौन समझाए वो तो ऐसे दिल लगा बैठा था जैसे उसके ऑपरेशन से देश सुधर जाएगा, पुलिस जाग जाएगी, दर्शक भी उसे धन्यवाद देंगे ।
लेकिन इस वक्त उसे ये बताना अकलमंदी नहीं होती, कि देश को धमाकों की आवाज़ में जीने की आदत पड़ गई है। खून के चीथड़े और उसकी बदबू हवा में घुल चुकी है । नेताओं के भष्ट्राचार से अब लोगों को गुस्सा नहीं आता । उन्हें तो दिलचस्पी है आरूषि के कातिल को जानने में। उन्हे तो मजा आता है राखी सावंत को टुक टुक देखने में, आंखे फाड़ फाड़ कर देखने में ।
भाई साहब तो अपनी नौकरी कर रहे है क्योंकि इस तनख्वाब से उनका घऱ चलता है ।

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